रजोधर्म के कारण महिलाओं के लिए द्वेषभरी क्रूर परम्पराएं

अन्धता से चल रही अनुचित धार्मिक परम्पराएं आज भी बहुत हैं।आज का आलेख मासिक धर्म या रजस्वलाओं के प्रति क्रूर परम्पराओं के बारे में है। अगर आपने कभी ऐसी भयानक परम्पराओं के बारे नहीं सुना हो तो आपको ये सब अजीब लग सकता है। 


१. रजस्वला स्त्री की अशुद्धि के बारे में प्रचलित कल्पनाएं:


जाती के नाम पर अस्पृश्यता तो अभी तक चल ही रही है।महिलाओं को मासिक धर्म में अस्पर्श्य और अदर्श्य माना जाता है, अर्थात रजस्वला महिलाने किसी वस्तु तक को भी स्पर्श नहीं करना चाहिए। धार्मिक कार्यों को करने का तो सवाल ही नहीं। माहवारी के कारण हमेशा के लिए ही महिलाओं से 'नफरत' करनेवाले भी धार्मिक लोग भी होते हैं। ये प्रश्न सिर्फ मंदिर में प्रवेश देने ना देनेका या धार्मिक अधिकारों तक सीमित नहीं है। महिलाओं से नफरतभरे अपमानजनक बर्ताव का मुद्दा बहुत व्यापक है।

कुछ लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि मासिक धर्म के तीन दिनों में महिला इतनी ज्यादा अपवित्र होती है कि उसका दर्शन भी नहीं होना चाहिए। उसे एक कमरे में बंद रखना चाहिए। मूल ग्रंथों में गलत विचारों की मिलावट के कारण कुछ धर्मग्रंथों में भी ऐसीही बातें मिलती हैं। आधुनिक समझे जानेवाले लोग उन्हें श्रद्धा से पढ़ते भी हैं। मंदिर के अलावा घर-घर में लोग महिलाओं से कैसा बर्ताव करते हैं इसकी चर्चाएँ आजकल सार्वजनिक तौर पर बहुत देखी नहीं जाती।

पर घर में या छोटे समूह में मासिक धर्म के कारण धर्म का भ्रष्ट होना, भगवान को, दुनिया को तकलीफ होना ये सब माना जाता है।लोग तो ऐसा आज भी मानते हैं कि घर में जो पूजा की मूर्तियाँ और भगवान होते हैं, उनपर मासिक धर्म के काल में महिला की छायातक नहीं पड़नी चाहिए क्योंकि कल्पना ये है कि भगवान की पवित्रता भंग हो गई तो घर में एक महिला के कारण अनर्थ हो जाएगा। कुछ धार्मिक लोग ये सब आजकल फिरसे प्रचारित करने लगे हैं। 

२. स्वच्छ कपड़ों में भी अशुद्धि की भावना:


सूती कपडे अपवित्र महिला के स्पर्श से अपवित्र होते हैं, पर कृत्रिम धागों से बने कपडे नहीं। इसके अलावा रेशीम के कीड़े से बने कपडे अपवित्र होने चाहिए पर उन्हें सबसे ज्यादा पवित्र माना जाता है।रजस्वला महिलाने सूती कपड़ों का स्पर्श किया तो सारे कपडे साफ़ धुले हुए हो तब भी – अपवित्र हो जाते हैं। फिर पवित्र पानी से धोकर ही उनकी शुद्धि हो सकती है। 


महिला की शुद्धि कैसे हो इसमें भी धार्मिक लोगों ने नियम बनाएँ। शारीरिक स्वच्छता की दृष्टि से स्त्री-पुरुष किसी के लिए भी स्नान को उचित समझा जा सकता है। पर अंधापन ये है कि स्नान से भी उस माहवारी चल रही महिला की शुद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि खुद अशुद्ध होकर उसने स्नान किया तो पानी भी अशुद्ध हो गया, फिर उस स्नान का क्या फायदा? फिर इन काल्पनिक नियमोंके अनुसार शुद्ध व्यक्ति दूरसे उस महिला पर शुद्ध पानी डाले तो शुद्धि हुई। अपवित्र कपड़ों को धोने की लिए भी प्रक्रिया थी, पहले महिला कपडे धो ले, फिर स्नान करे, बाद में शुद्ध पानी से, धुले हुए कपड़ों को शुद्ध करे। ये सब शायद किसी को ठीकसे समझ में ना आये पर इस हद तक पागलपन आज भी चलता है। धार्मिक नेताओं ने इन मान्यताओं की व्यर्थता समझाने की बजाए कुछ लोग इन चीजों को बढ़ावा ही देते हैं।


३. पानी की अपवित्रता और शुद्धि की परंपरा: 


पहले से ही अपवित्र महिला के स्नान के लिए गरम पानी की सेवा कौन करेगा? वो खुद तो छू नहीं सकती और पवित्र लोग क्यों अपवित्र महिला की सेवा करें? फिर उसे ठन्डे पानी से ही स्नान करना पड़ता था। घर के बाहर! क्योंकि घर के स्नानगृह में अपवित्र महिला जाए तो वो अपवित्र हो जाता।

अपवित्रता को शुद्ध करने के लिए पानी की शुद्धता के बारे में भी कल्पनाएँ हैं। अस्पृश्यता के कारण अलग कुओं की विकृत कल्पना तो हम जानते ही हैं। पर आजकल अगर पानी कहीं छत पर बड़ी टंकी में हो और महिला कहीं पानी के नल को छू ले तो ऊपर का पूरा पानी अशुद्ध हो सकता है। नल का पानी उलटा ऊपर टंकी में तो जा नहीं सकता। तो वो अशुद्ध कैसे हुआ? नल को सिर्फ छूनेसे पाइप के अंदर का पानी कैसे अपवित्र हुआ? नगर निगम का पानी पीला हो, उससे बीमारियाँ हो तब भी वो शुद्ध माना जाता है क्योंकि वो जिस टंकी से आता है वो हमारी आँखों के सामने नहीं होती और शायद वहां रजस्वला के स्पर्श का भय ना होता हो। अगर पानी को शुद्ध करने कोई रास्ता ना हो तो गोमूत्र से उसे शुद्ध किया जाता है।

कुछ परिवार रजस्वला महिला को अलग रहने को मजबूर नहीं करते, पर इसका कारण बहुत बार खाना पकाने की समस्या या घर का छोटा होना होता है। जिन घरों में रोज पूजा होती है और भगवान को भोग लगाया जाता है, वहाँ तीन-चार दिन पूजा और भोग लगाना बंद रख दिया जाता है। समस्या भी काल्पनिक और उसका इलाज भी काल्पनिक। 

४. रजोधर्म की तथाकथित अपवित्रता को पारिवारिक कलहों  का कारण माना जाना:


आज के आधुनिक जमाने में जहाँ सबके हाथ में स्मार्टफोन हैं, मैंने ऐसे जड़बुद्धि नकली धार्मिक बाबा भी देखे हैं, जिनका मानना है कि महिला ने मासिक धर्म में, घर में अपने आपको अलग नहीं रखा तो घर में कलह होते हैं। रिश्तों में दरारें, सतत के कलह, घर में अशांति ये सब अपने इंसानी स्वभाव के दोषों के कारण होते हैं, पर खुद को दोष देने से अच्छा महिला को और एक नैसर्गिक प्रक्रिया को दोष दिया जाता है और इस तरह का धर्म प्रचारित करने में भी आसान होता है। इस तरह की मूर्खता के लिए तपस्या या शास्त्राध्ययन की तो जरूरत नहीं होती। बस नकली बाबा बनकर कुछ भी बोल दो तो श्रद्धा से लोग मान लेते हैं और स्वीकार भी लेते हैं।  ये विचार किसी बाबा ने बोल दिया तो फिर महिला के साथ क्रूर बर्ताव किया जाता है। क्योंकि अंधश्रद्धालू लोग मानने लगते हैं, इस बेटी या बहु के कारण घर में अनर्थ हो रहा है। इसकी वजह से 'हमारा' परिवार बर्बाद हो रहा है। काफी लोगों में बहू या बेटी को आज भी परिवार से अलग पराया ही माना जाता है। बेटी के जन्म से दुःख होने का ये मासिक धर्म बहुत बड़ा कारण है।

मासिक धर्म हर महिला के जीवन में आता हैउसके लिए किसी महिला को 'अपराधी' कैसे समझा जा सकता है? रजोधर्म नहीं हुआ तो क्या यही लोग स्त्री को अपूर्ण कहकर नहीं कोसेंगे, अपूर्णता के कारण त्याज्य नहीं समझेंगे? जन्म से ही पवित्र समझे जानेवाले पुरुषों का जन्म होता कैसे हैउस सदा अपवित्र गर्भाशय से ही नाफिर इस तरह का दुष्प्रचार करनेवाले लोगों को अपने शरीर से ही घृणा क्यों नहीं होती?

५. रजस्वला स्त्री को वैषयिक उत्तजेना में कारण समझना:


मासिक धर्म के सन्दर्भ में इससे भी घिनौना मत सुना गया है। माहवारी में महिला के शरीर से वैषयिक उत्तेजना निर्माण करनेवाले द्रव्य उत्सर्जित होते हैं, इसलिए सदा से ही संयमी, वासनाहीन और पवित्र माने जानेवाले पुरुषों ने महिलाओं से इस काल में दूर ही रहना चाहिए। वैसे भी हर अनर्थ के लिए महिला को ही दोषी समझा जाता है। पर इस कल्पना में सबसे बड़ी क्रूरता ये है कि इस तरह की बात कहनेवाले व्यक्ति के लिए ये जानना आवश्यक नहीं कि मासिक धर्म में कितनी ही महिलाओं को शारीरिक वेदना, पेट और कमर दर्द, अत्यधिक रक्तस्राव, रोने का मन करना या बहुत दुखी होना जैसी बहुत सारी पीडाएं रहती है, उन्हें दिखे तो सिर्फ काल्पनिक कामुक उत्तेजक द्रव्य। और ज्यादा धार्मिक लोगों का मत ये है कि महिलाएं वैसे भी कामवासना से ग्रस्त ही होती हैं इसलिए उन्हें व्रत, उपवास जैसे नियम सिखाने चाहिए ताकि कुछ संयम बना रहे।

६. परम्पराओं के लिए वैज्ञानिक आधार देना: 



अब तो वैज्ञानिक आधार भी दिया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि ये संशोधनों में पता चला है कि माहवारी में महिला के शरीर से जंतु निकलते हैं जो सबके लिए हानिकारक होते हैं। यहाँ तक की कपडे या निर्जीव वस्तुओं पर भी रजस्वला महिला के कारण दुष्परिणाम होते हैं। किस संशोधन में किसने ये कहा हैये संशोधन किस तरह से किया गया था ऐसी कोई जानकारी देना टाला जाता है।

७. रजोधर्म को पोस्टपोन करने के लिए गोलियों का सहारा लेना:


आज के ज़माने में भी आधुनिक लड़कियां किसी धार्मिक पर्व के अवसर पर, घर में किसी पूजा के समय में माहवारी शुरू हो गई तो, इस डर से माहवारी को पोस्टपोनकरनेवाली गोलियां खाकर अपने शरीर और हार्मोन का संतुलन बिगाड़ लेती हैं। इस तरह की गोलियों के परिणामों की जानकारी लड़कियों को नहीं होती और घर में परम्पराओं का प्रचंड दबाव होता है। इसलिए लड़कियां, इस अंधेपन की रक्षा के लिए, खुद की हानि कर लेती हैं। विवाह या मंगनी जैसे जिन्दगी के अति विशिष्ट क्षणों में माहवारी ना शुरू हो इसलिए भी चिंता होती है, क्योंकि मुहूर्त के अनुसार ही विवाह की तिथि तय की जाती है।

८. रजोदर्शन के बाद लड़की का अपूजनीय समझा जाना: 


नवरात्रि पर्व में और अन्य अवसरों पर भी बच्चियों की देवी माँ समझकर पूजा की जाती है। सिर्फ उन्हीं लड़कियों की जिनकी माहवारी अभी तक शुरू नहीं हुई है। पौगंडावस्था और युवावस्था में महिला अपवित्र हो जाती, पूजा करनेयोग्य नहीं मानी जाती।

सार-विचार:


क्या पुरोहितों का, धार्मिक नेताओं का परम्पराओं के प्रति बहुत कट्टर बने रहने में क्या बड़ा योगदान नहीं है? क्या पुरोहित और धार्मिक नेता लोगों का ये दायित्व नहीं कि अब अनुचित बातों को त्याग दें?

आध्यात्मिक परिणामों की बात करनेवाले लोगों की आध्यात्मिक योग्यता का परीक्षण कौन करेगा? किस आधार पर पवित्रता और अपवित्रता के नियम बनते हैं


अगर कुछ रजस्वला महिलाओं से ही कुछ हानि होनेवाली ही थी तो पूरी दुनिया अब तक उजड़ चुकी होती।

क्या अपवित्रता के ये विचार व्यक्ति के तौर पर और सामूहिक परंपरा के रूप में भी नार्मल हैं? क्या हम मन के विचारों की शुद्धता की ओर ध्यान देते हैं? मन को धोने के लिए तो साबुन नहीं मिलता। अपवित्रता हमारे मन और मस्तिष्क में है और उसे दूर करने के लिए प्रयास करने चाहिए। 

अपवित्रता की इन कल्पनाओं ने धर्म की हानि ही की है। सच्चे धर्मप्रेमी लोगों ने ऐसी परम्पराओं का विरोध ही करना चाहिए। 

कभी कभी लगता है कोई जननी होने के कारण स्त्री और रजोधर्म को पवित्र रूप में वर्णन करके रखता तो शायद परम्पराएं उलट होती रजोधर्म को पवित्र माना जाता 

हिन्दू धर्म के अलावा और धर्मों में भी महिलाओं के प्रति अनुचित परम्पराएं हो तो इसका अर्थ ये नहीं कि हिन्दुओं की अनुचित परम्पराएं शुरू रखने के लिए आधार के तौर पर इस कुतर्क का प्रयोग हो। इस तरह के तर्क से मजेदार बात सामने आती है कि महिलाओं के प्रति असमानता के लिए कट्टर धार्मिक लोग भी धर्मनिरपेक्ष बन जाते हैं।


PS: यहाँ पुरुषों के या सारे धार्मिक लोगों के विरुद्ध मेरा कोई मत नहीं. ये सिर्फ अनुचित परम्पराएं और उनके पीछे की गलत सोच का वर्णन लिखा है।