श्रीशिवलीलामृतग्रन्थ कथा सार - ज्ञान और भक्ति के आध्यात्मिक सन्देश

आजका आलेख मेरे बंधू ज्ञानेश और मेरी प्रस्तुती है यह कल्पना ज्ञानेश की है, उन्होंने इसे लिखा भी है, मैंने इसमें कुछ और पहलुओं का समावेश किया है यह हमारे ब्लॉग पे पहला प्रयोग है जिसमें एक आलेख में एक ही विषय पर अलग अलग पहलू एक साथ मिलाए गएँ हैं और उसे शिवलीलामृत की कथासहित सन्देश रूप बनाया गया है 


Image: Shivapuja in Shravan

  
अलग अलग भाषाओँ में ब्लॉग लिखते समय विभिन्न विषय लाते हुए हमारा हमेशा यह प्रयास रहा है की जो विषय जिस भाषामें ज्यादा परिचित नहीं है, उसे प्रस्तुत किया जाए, ताकी अलग अलग राज्यों की विभन्नता में जो सौन्दर्य है उसका आनंद हम सब ले सके, और इस विभिन्नता के आश्चर्य में हम हमारे प्रांतीय भेद मिलाके नयी ही एकता का, नयी कला, नए मिलाफ, नए सौन्दर्य का सृजन कर सकें. इसीलिए मराठी भाषा के अनुपम आध्यात्मिक काव्य श्रीशिवलीलामृत ग्रन्थ की महिमा, सौन्दर्य और भक्तिपूर्ण जानकारी का मंथन आज के आलेख में है  

आज श्रावण मास का सोमवार है और आज हम भगवान शिव की लीलाओं का चिंतन करेंगे   


श्री शिवलीलामृत काव्य की रचना:


महाराष्ट्र भाषामें अर्थात मराठी में सुप्रसिद्ध महान काव्य ग्रन्थ शिवलीलामृत का लेखन शके १६४० फाल्गुन पौर्णिमा विलम्बी नामक संवत्सर को  पूर्ण हुआ जैसा की इस ग्रन्थ के प्रारंभ में ही लिखा है, यह स्कन्दपुराण के ब्रह्मोत्तर खण्ड में जो शिवलीलाएँ वर्णित हैं उन पर आधारित है
भगवान शिव की विभिन्न कथाएँ, शिवभक्तों के लिए व्रत, उपासनाएँ, स्तोत्र, शिवनाम का जाप, शिवभक्तों की ह्रदयस्पर्शी गाथाएँ और मुक्तिदाता आध्यात्मिक उपदेश यह सब इस महान काव्य में इतनी सुन्दरतासे, इतने आसान शब्दों में रचित है की यह पढने के बाद हमें अमृत कहीं ढूंढना नहीं पड़ेगा

काव्यग्रन्थ की सौन्दर्यपूर्ण रचना:  

काव्य की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति अत्यंत सरलता से करना यह श्रीधर कवी जी को भगवान का ही वरदान है श्रीधर कविजी को के लेखन में साक्षात् माँ सरस्वती विद्यमान हैं यह उनके भगवान के अनेकों रूपों के ऊपर लिखे गए काव्य ग्रन्थ देखने से पता चलता है

श्रीशिवलीलामृत में चौदह अध्याय है हर अध्याय भक्ति के एक विशिष्ट अंग को समर्पित है

हर अध्याय की विशेषता यह है, कवी अध्याय के प्रारंभ में ईश्वर से प्रार्थना करतें हैं ईश्वर की कृपा से ही उत्तम काव्य का सृजन होता है, तथा ईश्वर के नाम जाप से और भक्ति से सारे पाप जल जाते हैं इसलिए काव्य परिपूर्ण हो इसलिए अति विनम्रता से हर अध्याय की पहली पंक्तियाँ छोटीसी प्रार्थना है और कवी की प्रतिभा ऐसी है की इन सारी छोटी छोटी प्रार्थनाओं को अगर मिला दिया जाए तो और एक छोटासा काव्य जो की शिवलीलामृत का सार है तैयार होता है. अगर कोई भक्त पूरा ग्रन्थ पढने के लिए रोज समय न निकाल पाए तो ४२ ओव्या जिसका नाम है, यह काव्य शिवलीलामृत का संक्षेप में पान करा देता है

अब देखतें हैं हर अध्याय की महिमा संक्षेप में,  


अध्याय १: पहले अध्याय में शिवमंत्र जो की पंचाक्षर – नम: शिवाय और षडाक्षर – 'ॐ नम: शिवाय' का माहात्म्य आता है ॐ इस बीज के साथ या उसके सिवा अर्थात पंचाक्षर और षडाक्षर दोनों मंत्रो का फल एक समान ही होता है यह दोनों तारक मन्त्र हैं इन मन्त्रों का जाप ही वेदांत है, भक्ति है और इसीसे दुर्लभ मुक्ति भी सहज प्राप्त हो जाती है
शिवमंत्र का जाप योग्य सद्गुरूद्वारा मन्त्रदीक्षा लेके करना चाहिए और फिर श्रीधर कवी सद्गुरू के लक्षण भी बताते हैं सद्गुरू भक्ति, वैराग्य, और दिव्य ज्ञान से संपन्न हो सर्वज्ञ, उदार और दयालु हो. जिन्होंने अपने स्वरूप को जान लिया हो ऐसे मितभाषी, शांत, और अमानी गुरू ही वास्तव में सद्गुरू होतें हैं  
दिव्य शिवमन्त्र ने दाशार्ह राजाका उद्धार कैसे किया यह कहानी आगे विस्तार से देखने को मिलती है

अध्याय २: दुसरे आध्याय में महाशिवरात्री का महत्त्व तथा बिल्वदल का महत्त्व बताया गया है. इस अध्याय में एक निषाद की कथा है इस कथा के अनुसार भोले बाबा वास्तव में इतने भोले हैं की निषाद की भक्ति जो केवल एक संयोग मात्र थी – उसका उपवास, उसके विनोदपूर्ण 'हर हर' का जाप और बिना जाने शिवलिंग पे बिल्व पत्र डाल देना ऐसे कर्मोंसे प्रसन्न होके उसका उद्धार कर देतें हैं साथ ही उसको शिकार के रूप में मिले हिरन के परिवार का भी उद्धार हो जाता है. विस्तृत कथा में जाए तो कर्मविपाक का वर्णन भी इसी अध्याय में मिलता है इस कथा से  हमें जीवन जीने के लिए नयी दृष्टी मिलती है
हमारी कर्तव्यों के प्रति इमानदारी होनी चाहिए और कर्म करते समय हमेशा सावधान रहना चाहिए क्योंकी यह दो बातें हमेशा हमारे साथ रहती है    

अध्याय ३: तीसरे अध्याय में गोकर्ण क्षेत्र का माहात्म्य है गोकर्ण क्षेत्र का जन्म कैसे हुआ यह कथा पहले आती है एक बार एक अनेकों रोगों से ग्रस्त स्त्री इस क्षेत्र में जाती है रोगों के कारण उसकी अवस्था मृत्युपंथ के समीप दिख रही थी, उसने किसी तरह लोगों से खाना माँगा और किसीने उसे सूखा बिल्वपत्र दे दिया उसने उसे सूंघ कर फेंक दिया संयोग से वह शिवलिंग पर गिरा और उसकी मृत्यु हो गयी, लेकिन भगवान शिव ने उसका उद्धार कर दिया. कथा के अनुसार पूर्वजन्म के कुकर्मों से (जैसे निष्पाप गोवत्स की हत्या करना) उसे इस जन्म में इतने दुःख और रोगों का अनुभव करना पड़ा परन्तु तीर्थ और बेल के माहात्म्य से उसका उद्धार हुआ   

अध्याय ४: चौथे अध्याय में उज्जयिनी महानगर के ज्योतिर्लिंग महाकाल का माहात्म्य है इस अध्याय की कथा से बोध होता है की भगवान केवल भाव के भूके हैं
एक छह वर्ष के गोपबालक की शिवभक्ति इतनी भोली थी की उसने शिवपूजा केवल शिवलिंग जैसे दिखनेवाले पाषाण, मृत्तिका की वेदी बनाके ही कर दी सबसे आश्चर्य की बात यह है की पूजा सामग्री के रूप में उसने पत्थर और मिट्टी ही भगवान को अर्पित की ध्यान और मानसपूजा तो वह न जानता था पर भोले भाव से सिर्फ आँखे बंद कर लेता था. परन्तु हमारे भोले बाबा तो इस पूजा बहुत ही प्रसन्न होकर साक्षात् प्रकट हो गए

अगर उनको शुद्ध अन्तकरण से प्रेमपूर्वक पत्थर, मिट्टी आदी भी अर्पण करें तो वे उसे सुवर्ण, हीरे या महंगे से महंगे पदार्थों से भी मूल्यवान समझतें हैं

वहां हनुमानजी महाराज प्रकट होकर उस बालक के आठवी पीढी में भगवान श्रीकृष्ण के पालक पिता नन्द जन्म के होने की बात बतातें हैं और कृष्णावतार होनेका भी उल्लेख इस अध्याय में हैं

अध्याय ५: पांचवे अध्याय में प्रदोषव्रत का वर्णन है प्रदोष व्रत हर पक्ष की त्रयोदशी को किया जाता है इसमें संध्या को जब प्रदोष काल आरम्भ होता है तब भगवान शिव की भक्तिभाव से पूजा करनी चाहिएशनिवार को त्रयोदशी आए तो उसे शनिप्रदोष कहते हैं इसी तरह से सोमप्रदोष और भौमप्रदोष विशेष माना गया है इन तीनों दिनों में आने वाले प्रदोष व्रत के फल भिन्न है लेकिन जो पक्ष प्रदोष करतें हैं वह सब फलोंसे परे निष्काम व्रत में दृढ़ होने लगतें हैं  

अध्याय ६: छटे अध्याय में सोमवार व्रत का माहात्म्य है सीमंतिनी की कथा है की किस प्रकार इस व्रत द्वारा भगवान शिव का आश्रय लेकर उन्होंने अपने पतिका जीवन बचाया

सबसे रोचक बात यह है, की सीमंतिनी के पिता ने कन्या प्राप्ती के लिए व्रत किया था


आज की स्थिती में जहाँ कन्या भ्रूण हत्या जैसे महाभयंकर पाप से लोग डरते नहीं हैं, हमें हमारी संस्कृति से योग्य शिक्षा फिरसे लेनी चाहिएईश्वर की भक्ती तभी सफल हो सकती है जब हम देवी माँ के साक्षात् रूप कन्या का सम्मान करना सीखेंगे

अध्याय ७: सांतवे अध्याय में सीमंतिनी के व्रत और भक्ति को और विस्तार से लिखा गया है सीमंतीनी की भक्ती इतनी दृढ़ थी की साक्षात् देवी माँ ने भी सीमंतिनी का हर शब्द अनुल्लंघनीय बताया था

अध्याय ८: आठवे अध्याय में महामृत्युंजय मंत्र का माहात्म्य है जिसके प्रभावसे किस प्रकार बालक जीवीत हुआ यह कथा है

अध्याय ९: नववे अध्याय में वामदेव मुनिके शरीर पर लगे हुए भस्म से केवल स्पर्शमात्र से ही एक ब्रह्मराक्षस का उद्धार हुआ यह कथा आती है वामदेव ऋषी अवधूत हैं दुनिया के सारे बंधन उनके विरक्त मन और जीवन को स्पर्श नहीं कर पाए हैं वह ऐसे शिवभक्त हैं की उन्हें मनुष्य रूप में भगवान शिव कहा गया है यही कारण है की उनके शरीर पर लगे भस्म से ब्रह्मराक्षस का उद्धार हुआ नववे अध्याय में वामदेव ऋषी ने आगे भस्मलेपन की महिमा बताई है
एक बहुत ही सहज परन्तु महत्वपूर्ण बात इस अध्याय में कही गयी है, मौन के विषय में ज्ञानचर्चा और शिवस्मरण इसके अतिरिक्त कुछ भी न बोलना यह मौन कहा गया है वामदेव ऋषी का जीवन ऐसा ही है। हम जैसे गृहस्थ लोगों को भी इससे शिक्षा मिलती है कि अनावश्यक बात करना छोड़ दें तो वह मौन ही है   

अध्याय १०: दसवे अध्याय में नैध्रुव ऋषि की वाणी सत्य होने की कथा है जहाँ असंभव संभव हो गया नैध्रुव ऋषी नेत्रहीन थे पतिमृत्यु से शोकाकुल एक स्त्री शारदा को नैध्रुव ऋषी सौभाग्य का आशीर्वाद देते हैं बादमें उसके शोक का पता चलता है तब वह उमा महेश्वर का व्रत बतातें हैं चैत्र अथवा मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष से इस व्रत का आरम्भ होता है और अष्टमी, चतुर्दशी, या सोमवार को भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा होती है यह व्रत एक संवत्सर तक करने के लिए नैध्रुव ऋषि ने कहा था नैध्रुव ऋषी की वाणी और उमा महेश्वर का व्रत इनके प्रभाव से शारदा को शाश्वत सौभाग्य की प्राप्ती हुई  

अध्याय ११: अकरावे अध्यायमें भस्म, रुद्राक्ष का माहात्म्य है रुद्राध्याय का महत्त्व वर्णन है. किसी दुर्भाग्य से वेश्यावृत्ती करने वाली शिवभक्त महानंदा की कहानी इस अध्याय में हैं वह हमेशा शिव पूजन और शिवभक्ती में इतनी लीन थी की समय आने पर उन्होंने भगवान शिव को अपना जीवन और प्राण तक अर्पित कर दिए परन्तु भगवान ने उसे बचाया और उनको शिवलोक की प्राप्ती हुई महानंदा के पुण्य से पूरे नगर का भी उद्धार हुआ. यह कथा बहुत ही हृदयस्पर्शी है जिसकी निष्कपट भक्ती है उसे भगवान अवश्य ही मिलते हैं

रुद्राध्याय से अकाल मृत्यु से भगवान शिव राजपुत्र को कैसे दीर्घ जीवनदान देतें हैं इसकी भी भावपूर्ण कथा इसी अध्याय में है

भगवान शिव और विष्णु में भेद करना कितना गलत है यह सन्देश भी यहीं दिया गया है  
महाराष्ट्र में इस अध्याय का महत्त्व विशेष है बहुत भक्त ऐसे हैं जो इस अध्याय का हर दिन पठन करतें हैं संकट के समय, या किसी की हालत गंभीर हो तब भी लोग इसका बहुत भक्तिभाव से पठन करतें हैं

       
अध्याय १२: बारहवे में शिवकथा श्रवण से किस प्रकार भक्तों का उद्धार और प्रेतत्व से मुक्ती मिलने की कथा है भस्मासुर का जन्म और संहार की कथा है

शिवकथा श्रवण की महिमा सुन्दर सुन्दर उपमाओं से समझायी गयी है कथा में जहाँ प्रेमपूर्वक पूजा, श्रवण, मनन आवश्यक है वहां कुतर्क करना अनुचित होता है यह बताया गया है

भगवान की कथाएँ भगवान प्रेम और भक्ति – आस्था रखनेवालों के लिए होती है हम जहाँ भी प्रेम करते हैं वहां तर्क लाते नहीं जैसे प्रेम की भावना तर्क से नहीं समझायी जा सकती बल्कि केवल अनुभव की जा सकती है ठीक वैसे ही भक्ती तर्क से साबित नहीं की जा सकती   

अध्याय १३: तेरहवे अध्याय में शिवगौरी विवाह, कार्तिकेय का जन्म तथा तारकासुर का कार्तिकेय द्वारा वध का वर्णन है

अध्याय १४: चौदहवे अध्याय में भगवान शिव के दोनों पुत्र कार्तिकेय और गणपति के बचपन की कथा है जो आपसमें झगड़ते थे और माताका  दोनों को समझाना आदि है 

महान शिवभक्त श्रियाल और उनकी पत्नी चांगुणा इनकी भगवान शिवने किस तरह से कठोर परीक्षा ली और उनका उद्धार किया यह भक्तिपूर्ण कथा है

और ग्रन्थ के पूर्ण होने से पूर्व श्रीधर कवी इस ग्रन्थ की महिमा विस्तारसे बतातें हैं कामना पूर्ण करने के लिए इसकी उपासना किस प्रकार करनी चाहिए यह भी वर्णन है
कवी ग्रन्थ समाप्त करने से पहले कथा का सार बतातें हैं और
शिवलीलामृत ग्रन्थ समाप्त होता है
वास्तव में यह अमृत हमारे मन में और जीवन में इस तरह से आ जाता है की शिव लीलाओं की कभी न समाप्त होने वाली कथाएँ हमारे जीवन में हर समय प्रतिबिम्बीत होने लगती हैं
ग्रन्थ का अमृत हमारा जीवन समृद्ध करता रहता है...हमेशा ..हमेशा..    


ज्ञानेश और मेरा यह छोटासा प्रयास भगवान शिव के चरणकमलों में अर्पण...

भगवान शिव और माता पार्वती को कोटि कोटि प्रणाम!  

ह्रदय की एक बात: पुराण ग्रंथों में दी हुई हर बात हर समय में  अनुसरण करना संभव नहीं, बदलाव के साथ जीकर जीवन एक प्रवाह होना चाहिए परन्तु ज्ञान, भक्ति, निश्छल प्रेम, कर्तव्यपरायणता, श्रद्धा यह सब नियम समय के साथ बदलने वाले नहीं हैं हमने ज्ञान का सन्देश छोडके केवल पठन - पाठन, और हर कथा में क्या सही क्या गलत ढूँढना शुरू किया इसलिए हमें हमारी ही संस्कृति की महत्ता का विस्मरण हो गया

आइये आज भगवान शिवशंकर से प्रार्थना  करतें हैं,



प्रेम के प्रवाह को खंडित करने वाले कुतर्कों को दूर करके ज्ञान और भक्ति की सरिता हमारे जीवन का अंग बने! 


ट्विटर पर @chaitanyapuja_