अपनी जड़ता में उलझी हुई परम्पराओं के लिए घमासान

शनि शिंगणापूर में महिलाओं के प्रवेश पर विवाद हो रहा है। मंदिर में महिलाओं को प्रवेश करने की अनुमति होनी चाहिए या नहीं इसपर लोगों के अलग अलग तर्क और मत हैं। मुझे लगता है कि चर्चा अब इस विषय पर भी होनी चाहिए कि अपनी ही बनाई परम्पराओं के प्रति हम कितने दिन जड़ रहना चाहते हैं?  धार्मिक परम्पराएं अगर भय, संकीर्णता और अतार्किक बंधन निर्माण करें तो क्या उनका औचित्य ही क्या रहता है


अपनी बनाई जड़ता में उलझी हुई धार्मिक परम्पराएं और मान्यताएं:

जड़ बुद्धिसे चलनेवाली संकीर्ण परम्पराएं वैसे तो बहुत हैं और उन सबका त्याग कर दिया जाए तो हमारे लिए प्रगतिकारक ही होगा।

शनि का विषय आजकल चर्चा में है। शनि देवता के बारे में ही बहुत अलग अलग मत हैं।

जैसे शनि की दृष्टि या उपासना से अगर पीड़ा बढ़ती है, तो शनिदेव से दूर ही रहना चाहिए, महिला और पुरुष दोनों ने।

पर एक विश्वास यह है कि शनि की प्रसन्नता के लिए शनि की पूजा, अर्चना, शनिमंत्र का जाप, दान ये सब साडे साती में करने से साडे साती की पीड़ा कम होती है।

शनिदेव की पूजा से पीड़ा बढ़ती है या कम होती है ऐसे दोनों परस्परविरुद्ध मत सुने हैं, लोग अपने अपने भय और विश्वास के अनुसार कोई मत चुनते हैं। 

तीसरा मत ये है कि शनि की दृष्टि से जीवन में आपत्तियां आती हैं, इसलिए तो मूर्ती के रूप में एक पत्थर ही हो, ताकि दृष्टि पड़ने का प्रश्न ही नहीं।

एक मत ये भी है कि शनि की दृष्टि अपने पर पड़े बिना ही दर्शन किया जाए।

एक मत ये है कि हनुमानजी की उपासना से शनि की पीड़ा कम होती है। पर कुछ लोग मानते हैं कि महिलाएं हनुमानजी की उपासना नहीं कर सकती।

और अब ये सुना कि शनि के स्पंदनों से महिलाओं को ज्यादा तकलीफ हो सकती है, इसलिए महिलाओं ने शनि शिंगणापुर के मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।

पर बाकि शनिमंदिरों में महिलाएं जा सकती हैं तो क्या स्पंदनों का मुद्दा अपना ही खंडन नहीं करता?

ये सब मत देखकर मुझे लगता है,

मूर्तीपूजा कब और क्यों शुरू हुई थी? आज हम कहाँ पहुँच गएँ हैं?

मूर्तिपूजा और मंदिर के साथ साथ नई नई परम्पराओं ने कैसे जन्म लिया और हमने परम्पराओं में अपने आपको आबद्ध कैसे कर लिया?

ईश्वर और देवताओं की उपासना में ईश्वर का स्वरुप भूलाकर हमने सर्वव्यापी ईश्वर को भी परम्पराओं में कैसे और क्यों बांध लिया?
इससे क्या फायदा हुआ?

धर्म के विषय में किसे अधिकार नहीं होना चाहिए ये तय करने का अधिकार परम्पराओं के लिए दुराग्रही लोगों को किसने दिया?

अगर एकही पत्थर से शनि और हनुमानजी की मूर्ती बनाई जाएं तो हनुमानजी की मूर्ती की ओर हमारा नजरिया अलग होगा और शनि की ओर अलग। हम प्राणप्रतिष्ठा से मूर्ती में चैतन्य होता है, इसलिए मूर्ती को भगवान मानते हैं, केवल पत्थर नहीं। पर फिर ईश्वर के एक रूप के प्रति भय क्यों? क्या भय हमने ही निर्माण नहीं किया? मेरा मुद्दा ये है कि अपनी जड़ मान्यताओं में हम खुद ही उलझ गएँ हैं। 

ईश्वर और देवताओं के विषय में जब भय फैलाया जाता है, जैसे अगर कोई परंपरा तोड़ी तो कुछ बुरा होगा, आपत्ति टूट पड़ेगी, क्या तब हम निर्गुण ईश्वर को अपनी समझ के अनुसार अच्छे बुरे गुण नहीं लगाते? क्या ये उचित है?  

अतार्किक और भयाधारित जड़ नियमों के जंजाल में हमने उपासना का मूल उद्देश्य ही दूर रख दिया है, ऐसा मुझे लगता है।

जहाँ धार्मिक परम्पराओं में भय लाया जाता है, वहां उस भय को बनाए रखने के लिए तर्क, बुद्धि, नैतिकता, समानता इन सब चीजों को पूरी तरह से एक तरफ रख दिया जाता है। हम परम्पराओं को इस तरह से चिपक के बैठते हैं कि अगर परंपरा तोड़ दी तो पता नहीं कौनसा भूचाल आ जाएगा। धर्म और परम्पराओं के नाम पर लोगों के मनमें जब भय बिठाया जाता है, उसी समय हम धर्म, भक्ति, श्रद्धा इन सबका त्याग कर देते हैं।

भक्ति, प्रार्थना, उपासना और श्रद्धा में भय के लिए स्थान ही नहीं होना चाहिए।

परम्पराओं के लिए इतना घमासान क्यों?

परम्पराएं कैसे बनती हैं? इसका कुछ तर्कसंगत उत्तर मिलना मुश्किल है। धार्मिक केंद्र भी एक तरह से सत्ता के केंद्र बन सकते हैं। जहाँ सत्ता का खेल शुरू होता है वहां सत्ता बनाए रखने के लिए जो भी रास्ता ठीक लगे अपनाया जा सकता है। एक बार सत्ता हाथ में हो तो उसे छोड़ना भी आसान नहीं होता। समानाधिकार में सबसे बड़ा भय सत्ता और नियंत्रण को हाथ से छूटने का ही बना रहता है। धर्म के मामले में भय निर्माण करना अपने स्वार्थों के लिए हो सकता है, अपनी जड़ता हो सकती है पर ये धर्म तो निश्चित ही नहीं।

धर्म के विषय में भय को एक शस्त्र की तरह प्रयोग में लाया जाता है। 

परम्पराएं निभाना उपयुक्त है अगर वे सामाजिक सौहार्द के लिए, अपने जीवन में सकारात्मकता की शक्ति लाने के लिए, मन की शांति के लिए हो। पर भय या उन्माद ही बढ़ें तो हमें ये सोचना चाहिए कि हम किस दिशा में जा रहे हैं और धर्म को किस दिशा में ले जा रहे हैं।

आज शनि शिंगणापूर के विषय में महिलाओं के प्रवेश पर आध्यात्मिक कारण दिया जा रहा है, पर इसी तरह की परम्पराओं के माध्यम से क्या परम्पराओं के कट्टर लोगों ने, धर्म के साथ -साथ हर क्षेत्र में लोगों के अधिकारों का हनन नहीं किया है? क्या अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए धर्म का दुरुपयोग नहीं किया गया है

देवताओं के संदर्भ में अलग अलग मान्यताएं होती हैं ये बात मैं समझती हूँ, पर परम्पराओं को चिपककर बैठने के लिए घमासान होना अज्ञान की भक्ति ही है। 

परम्पराओं से आगे बढ़कर बंधनों से परे ईश्वर को जानने के लिए हमारी सोच में मुक्तता लाने की आवश्यकता है।

परम्पराओं के विषय में चैतन्यपूजा में पोस्ट: