मंथन: देवी मां के भक्तों ने फेमिनिस्ट क्यों होना चाहिए।

नवरात्रोत्सव का उल्लास और उमंग हर ओर छायी हुई है। नवरात्रि में प्रतिदिन देवी मां की पूजा हम एक भिन्न रूप नौ दिनों तक करते हैं। इस नवरात्रि में जो परिदृश्य उभर कर सामने आ रहे हैं वह सबको चौंकानेवाले साबित हो रहे हैं। इनमें दूसरा जो परिदृश्य दिख रहा है उसमें श्रद्धावान धार्मिक हिन्दू (उनके अनुसार) सबरीमला मंदिर के हकों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। क्योंकि इन भक्तों की मान्यता है कि सभी उम्र की महिलाओं के लिए सबरीमाला मंदिर में प्रवेश देने से जो भयानक परिणाम सामने आ सकते हैं उससे हिन्दू धर्म संकट में होगा। जिसे हम वैसे तो सनातन कहते हैं उस हमारे हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए विशिष्ट उम्र की महिलाओं को इस मंदिर में जाने से रोकना होगा।  

इसी समय तीसरा जो परिदृश्य दिख रहा है उसमें अधिकधिक महिलाएं रोज अपने पर हुए लैंगिक अत्याचारों की व्यथा समाज के सामने खुल कर रख रही हैं।  'मी टू' कैंपेन अब भारत में तेजी से फ़ैल रहा है। 

इन तीन विषयों में एक घटक समान है जिसके इर्दगिर्द ये सब दृश्य घूम रहे हैं -- वो है स्त्रीत्व।


Text Image for the article: Devi Maan-Ke Bhakton Ko Feminist Kyon Hona Chahiye

स्त्रीत्व: पूजा, प्रतिबन्ध और अत्याचार

स्त्रीत्व के एक रूप की हम देवी, शक्ति कहकर पूजा करते हैं और दूसरी ओर स्त्रीत्व के मानव रूप को हम उसी स्त्रीत्व के कारण मंदिर में जाने से प्रतिबंधित करते हैं और दैनिक जीवन में उस स्त्रीत्व पर अन्याय, अत्याचार करते हैं। 

इसको समझना मुझे बहुत कठिन लग रहा है।  मेरे मन में उठ रहे प्रश्न आपको गलत लगे तो क्षमा करें। हम वास्तव में कौन हैं? जो स्त्रीत्व की पूजा करते हैं वो या वो जो स्त्रीत्व को अपवित्र मानकर मंदिर में जाने से प्रतिबंधित करते हैं या फिर वो जो स्त्री को पुरूषों की अपेक्षा कमजोर मानकर उनपर अत्याचार करते हैं। 

इन तीनों परिदृश्यों के समांतर एक और विचार उभर रहा है -- फेमिनिस्ट और फेमिनिज्म से नफरत करने का। 

हमारा वास्तव चेहरा कौनसा है? देवी मां के प्रति हमारी भक्ति कितनी प्रामाणिक है? या वह भक्ति का एक ढोंग ही है? महिलाओं के प्रति हमारा वर्तन द्वेष से भरा होगा तो क्या देवी हमारे द्वारा की गई पूजा का स्वीकार करेंगी?

मनमें स्त्रीत्व के प्रति द्वेष होनेपर हमारी कोई भी पूजा, उपासना प्रामाणिक हो ही नहीं सकती। ये कोई धर्म नहीं। 

हमारे स्वार्थ की सिद्धी के लिए उपयुक्त विधिविधानों को हम धर्म का नाम देते हैं और फिर इन मानवनिर्मित अन्यायकारक विधानों को परंपरा कहकर उनके लिए लड़ते हैं ताकि शोषित और पीड़ितों को हम हमेशा हमारे नियंत्रण में रख सके। जिन वर्गों का दमन होता आ रहा है, इस आलेख के सन्दर्भ में महिलाएं, उन्हें उनके अधिकार और स्वातंत्र्य मिला तो पुरूषों की एकाधिकारशाही पर महिलाओं का नियंत्रण होने का डर हमें सताता है। इसीलिए किसीने अन्याय के विरुद्ध जरा आवाज उठायी तो धर्म पर आघात होने का झूठ हम फ़ैलाने लगते हैं। 

हमें दबे-कुचलों और अन्यायग्रस्तों को अपने नियंत्रण में रखना है क्योंकि हमें लगता है कि उनका जन्म अपमान, शोषण और अत्याचार सहने के लिए ही हुआ है।  वे उसी योग्य है।  ये मानसिकता हमारा वास्तव है। 

फिर भी हम स्त्रियों के रक्षक होने का दावा करते हैं। हम हिन्दू संस्कृति की महानता दुनिया को एक ही एक संस्कृत पद का सन्दर्भ लेकर बार-बार बताते हैं, "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।" हमारी संस्कृति तो स्त्रियों की पूजा करती है। 
फिर बलात्कार, सामूहिक दुष्कर्म, अवयस्क बच्चियों पर अत्याचार, एसिड हमले, ऑनर-किलिंग के नाम पर लड़कियों की हत्या इन सब समाचारों की ओर भी मत देखिए।

हमें फेमिनिज्म की जरूरत नहीं है। हमारी महान संस्कृति में जन्म लेनेवाली स्त्रियों को तो बिलकुलही नहीं। फेमिनिज्म एक कैंसर है ऐसा स्वयंघोषित धर्मरक्षकों को लगता है। 

नवरात्री के निमित्त सब देवी की भक्ति में डूब चुके हैं ऐसा वातावरण है। हर दिन उपवास, अखंड दिया लगाने जैसे बहुत सारे व्रतों का भी पालन इन नौ दिनों में हो रहा है।  हमें हमारी महान संस्कृति की प्रथाओं का अचूक पालन करना होता है जो कि उचित भी है। पर भक्ति के साथ-साथ ही महिलाओं का द्वेष चल रहा होता है यह हमारी भक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगानेवाला है।

नवरात्रि में बलात्कार की घटनाओं के समाचार पढ़ने ही नहीं, हम ऐसी घटनाओं को नहीं रोक सकते तो क्या हुआ उनकी ओर अनदेखी तो करही सकते हैं। और फिर हम संस्कृति का गुणगान करेंगे।

अगर आप स्त्रियों के हकों को नकारते हैं और आपको ये लगता है कि महिलाओं ने मानव के रूप में जीने के लिए अपने अधिकार मांगे तो सारी समाजव्यवस्था, विशेष रूपसे धर्म पर खतरा होगा तो आप देवी के सच्चे भक्त नहीं।

अगर हमें ये लगता है कि स्त्रीत्व का किसी विशिष्ट मंदिर में प्रवेश होने से पृथ्वीपर प्रलय होगा तो देवी मां की भक्ति का पाखंड हमने रोकना चाहिए।

महिलाओं के सबरीमला मंदिर में प्रवेश का मुद्दा स्त्रीत्व से सम्बंधित है और आजके मूल विषय के सन्दर्भ में इस मुद्देपर चर्चा करना आवश्यक है।  इस मुद्देपर भावनाएं भड़काने के नियोजित प्रयास होते दिख रहे हैं।  कदाचित कुछ समय बाद, चुनावों के बाद इनके सत्ता के रूप में फल भी नफरत फैलानेवालों को मिलें।

पर फ़िलहाल इस मुद्दे के राजकीय पहलुओं को एक तरफ रखकर केवल धार्मिक पहलुओं पर ही मैं अपना मत रख रही हूं।एक मत किसी विषय पर अंतिम निर्णय नहीं होता, मुझे वह देने का अधिकार भी नहीं है ना ही धर्माधिकारी बनकर धर्म का व्यवसाय बनाना है। इसलिये मेरा मत मेरा स्वतंत्र मत है उसका किसी भी राजकीय या अराजकीय पक्ष या संस्थासे संबंध नहीं इस बात की ओर कृपया ध्यान दें। मुझे धर्म और संस्कृति के नाम पर चल रहे इस पाखण्ड से पीड़ा होती है इसलिए इस विषय पर लिखे बिना नहीं रहा जाता। अगर मेरे विचारों से किसी की भी धार्मिक भावनाएं आहत होती है तो मुझे अज्ञानी समझकर क्षमा कीजिए ; जानबूझकर धर्म के विरुद्ध लिखने का मुझे कोई कारण नहीं।

सृजन की शक्ति को अपवित्र क्यों  माना जाता है?    

रजोधर्म आनेवाली उम्र की महिलाओं के सबरीमला मंदिर प्रवेश पर प्रतिबन्ध के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं उनमें से एक है कि हिन्दू धर्म के अनुसार प्रत्येक देवता के लिए नियम भिन्न भिन्न नियम होते हैं इसलिए उनका आदर करना चाहिए और ये कि इसका भेदभाव से कोई सम्बन्ध नहीं।  ये तो केवल एक नियम है। सभी मंदिरों में इस तरह के प्रतिबन्ध नहीं हैं इसलिए हम महिलाओं से भेदभाव नहीं करते। मेरे मत में इस तर्क से ये बात साबित नहीं होती कि किसी विशिष्ट उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश क्यों नहीं मिलना चाहिए। 

धर्म के नामपर ये जो रजोधर्म आनेवाली महिलाओं पर मंदिर में जाने से रोकने के नियम पर ही जोर दिया जा रहा है और मासिक धर्म और स्त्रीत्व के बारे में जो भय का वातावरण समाज में निर्माण किया जा रहा है उसके पीछे स्त्रीत्व से नफरत ही एक कारण नजर आता है। 

हिन्दू धर्म के नियमों को देखा जाए तो हर मंदिर और हर देवता की उपासना के लिए हजारों नियम परंपरा से चले आते हैं। ये नियम केवल स्त्रियों पर प्रतिबन्ध के रूप में ही नहीं होते जैसे कि यज्ञोपवीत धारण करना, शिखा रखना, पुरूषों के लिए बनाये गए आचारधर्मों का पालन करना ये सब धर्म के अनुसार आवश्यक होते हुए भी ऐसे नियमों को बदला या छुपाया जाता है। और जब इस तरह के नियमों का पालन नहीं होता तब उससे धर्म या श्रद्धा प्र आघात होता है या नहीं इसपर धर्माधिकारी विद्वानों का कोई मत सुनने को नहीं मिलता। 

ये सारे नियम, स्त्रियों के प्रवेश पर प्रतिबंध के विषय में जो कट्टरता दिखायी गई है, उसी अचूकता से ऊपर लिखे नियमों का पालन किया जाता है या नहीं इसके बारे में जानकारी मिलना लगभग असम्भव है। सामान्य भक्त मंदिर व्यवस्थापन को इस विषय में प्रश्न नहीं कर सकते और हमें नियमों की सत्यासत्यता की जानकारी नहीं मिल पाती। मंदिर में महिला प्रवेश पर प्रतिबन्ध के समर्थक विद्वान् बड़ी चतुराईसे ये समझाते दीखते हैं कि पुरूषों पर भी तो प्रतिबन्ध होते हैं मंदिरों में। परन्तु ये विद्वान् ये समझाते नहीं दीखते कि ये नियम कौनसे हैं और उनका पालन हो रहा है या नहीं। 

मुझे इस मुद्दे को स्त्री विरुद्ध पुरूष ऐसा नहीं बनाना है। धर्मरक्षण के नामपर यह सारा घमासान धार्मिक सत्तापर अपना नियंत्रण अबाधित रहे इसके लिए लगता है। हर उम्र की महिला को मंदिर में प्रवेश मिल गया तो भविष्य में मंदिर के कामकाज में महिलाओं को लेना चाहिए ऐसी मांग भी सामने आ सकती है ये भय इस घमासान के पीछे लगता है। 

अगर स्त्रीभ्रूणहत्या करनेवाले मातापिता को मंदिरों में प्रवेश प्रतिबंधित करने जैसा नियम होता तो धर्मरक्षण की विशुद्ध भावना पर मेरा विश्वास भी हो पाता। 

जिन विद्वानों ने उम्र १० से ५० तक की महिलाओं के प्रवेश को रोकने का नियम बनाया उनके लिए स्त्री भ्रूण हत्या करनेवाले या बलात्कार करनेवालों को पहचानकर उनके प्रवेश को रोकने का नियम बनाना असंभव नहीं। 

महिलाओं का मासिक धर्म अगर अपवित्र होगा तो हमारे जन्म में कारण वही रजोधर्म है इसलिए हमें अपना जन्म और अस्तित्व भी अपवित्र लगना चाहिए। पर वास्तव में पुरूष हर स्थिति में पवित्र और महिलाएं अपवित्र ऐसा भेदभाव हम करते हैं। स्त्रीत्व से डरे हुए या कम से कम ऐसा वातावरण बनानेवाले धार्मिक नेताओं ने अपवित्र स्त्रियों के बिना पवित्र संतति को जन्म देने के नए नए तरीके खोजने चाहिए। 

देवी-देवता समता से कार्य करते हैं फिर मानव स्त्री-पुरूष समान अधिकार क्यों नहीं ला सकते?   

नवरात्रि में देवी की भक्ति में जो पाखंड होता है उसपर फिरसे आते हैं। अगर हमें  फेमिनिज्म घातक लगता है और स्त्री-पुरूष समान अधिकारों की मांग से पुरूषों को खतरा निर्माण हो रहा है हम ऐसा मानते हैं तो हमने देवी मां की उपासना करनी ही नहीं चाहिए। देवीने अन्याय-अत्याचार करनेवाले असुरों का अंत किया था और पुरूष देवताओं की उन असुरों से रक्षा की थी। हमारी मान्यता के अनुसार स्त्री पुरूषों की अपेक्षा कमजोर होती है, फिर भी देवी मां ने युद्ध लड़कर असुरों को मारा था। दुर्गा या काली को इन देवरूपों का वह स्त्रीरूप है इसलिए उन्हें युद्ध करने से प्रतिबंधित नहीं किया गया था। इसके विपरित पुरूष देवताओं ने ही देवी मां को प्रार्थना की थी असुरों का अंत करके उन्हें बचाने के लिए। इसलिए देवी की कथाओं में स्त्री-पुरूष अधिकारों की जो समानता दीखती है उसे नकारकर कौनसी भक्ति हम कर रहे हैं?

फेमिनिज्म के बारे में गलतफहमियां: 

फेमिनिस्ट व्यक्तियों से बहुत नफरत की जाती है, इतनी के आज के दौर में फेमिनिस्ट लोगों से पुरूषों को संरक्षण की जरूरत है ऐसा विचार फैलाया जा रहा है। 

कुछ लोगों का कहना है कि भारत में 'चुनिंदा फेमिनिज्म' है इसलिए वह यथार्थ नहीं। कुछ और लोगों का कहना है कि महिलाओं ने पुरूषों की तरह बनने का प्रयास करना ही फेमिनिज्म है। और कुछ लोगों का कहना है कि मूलतः फेमिनिज्म कम्युनिस्टों का विचार है इसीलिए ये नफरत के काबिल है । 

यह फेमिनिज्म से नफरत करनेवालों के विचार है उसे माननेवालों के नहीं। 

फेमिनिज्म स्त्री और पुरूष शारीरिक दृष्टि से एक जैसे हैं या होने चाहिए ऐसा साबित करने का आंदोलन नहीं है। 

फेमिनिज्म का अर्थ पुरूषों से नफरत नहीं। यह फेमिनिस्ट महिलाओं के बारे में फैलायी गयी एक भ्रामक कल्पना है।  इसके पीछे की धारणा यह कि फेमिनिस्ट केवल महिलाएं ही होती हैं। वास्तव में फेमिनिस्ट तो पुरूष भी होते हैं। 

फेमिनिज्म को हिंदी में नारीवाद कहा जाता है और भ्रामक कल्पना यह है कि फेमिनिस्ट महिलाओं को स्त्री वर्चस्व को दुनिया में लाना है। महिलावर्चस्ववाद फेमिनिज्म का ध्येय नहीं है; समानता लाना यह है। 

फेमिनिज्म का वास्तवमें अर्थ क्या है? 

मरियम-वेब्स्टर शब्दकोश के अनुसार फेमिनिज्म संकल्पना की व्याख्या है 

१. सारे जेंडर के व्यक्तियों के लिए सामाजिक, राजकीय और आर्थिक समानता का सिद्धांत 

२. स्त्रियों के अधिकार और हितों की रक्षा के लिए संघटित कार्यकलाप  

फेमिनिज्म महिला और पुरूषों के लिए समान सामाजिक, राजकीय और आर्थिक अधिकारों के लिए आंदोलन है।  दोनों वर्गों को समान अवसर प्राप्त हो इसके लिए लड़ाई है। महिलाओं को पुरूषों से कमजोर मानकर उनके अधिकारों को नकारना नहीं चाहिए। 

महिलाओं के साथ एक मानव होने के नाते समानता का बर्ताव हो। 

मुझे फेमिनिज्म का आंदोलन इस तरह से समझ में आता है 


१. शिक्षा का अधिकार: महिलाओं को सुरक्षित वातावरण में शिक्षा मिलनी चाहिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अत्याचार के बिना या ऐसे किसी तरह के भय के बिना 

२. अर्थार्जन के लिए काम करने का अधिकार: मातापिता ने अपनी बच्ची को शिक्षा प्राप्त करा देना यह उसका अधिकार है उसपर किया गया एहसान नहीं। शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपना व्यवसाय या नौकरी चुनने और उसे करने का अधिकार। लड़की ने नौकरी करनी चाहिए या नहीं इसपर आज भी बहस होती है। इसके अलावा शादी के बाद नौकरी करने की अनुमति दी जाए या नहीं इस पर भी चर्चा होती है। इसपर लड़की को अपना स्वातंत्र्य अक्सर नहीं होता। अर्थार्जन के लिए काम करना और आर्थिक रूप से स्वतन्त्र होना ये महिलाओं का अधिकार है। आज भी महिला, लड़की, पत्नी इनपर नियंत्रण करनेवाला पुरूष होना चाहिए यह मानसिकता दीखती है। 

३. इसीसे जुड़ा अगला मुद्दा सुरक्षित वातावरण में काम करने का अधिकार।  भेदभावरहित, शारीरिक-मानसिक अत्याचार से मुक्त वातावरण में काम करने की व्यवस्था। 

इस तरह के प्राथमिक अधिकारों के लिए मांग करना पुरूषों के लिये खतरा कैसे हो सकता है? सुरक्षित वातावरण की मांग करने से पुरुषों पर अन्याय नहीं हो सकता फिर ऐसा क्यों फैलाया जाता है? 

समान काम के लिए समान वेतन प्राप्त हो इस मांग से पुरुषों के कौनसे अधिकार खतरे में पड़ते हैं? ऐसा क्यों फैलाया जाता है? 

पुरूषों को भी लैंगिक अत्याचार और भेदभाव का सामना करना पड़ता है यह सत्य है। पुरूषों के अधिकार और उनपर हो रहे अत्याचारों पर विचार निश्चितही होना चाहिए। किन्तु महिलाओं का दमन शतकों से चलता आ रहा है। 

उच्च अधिकारों के पदों पर आज भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है पर उस तुलना में लैंगिक अत्याचारों का प्रमाण बहुत ही ज्यादा है। इस तथ्य को पुरूषों के अधिकारों के लिए लड़नेवाले और फेमिनिज्म को कैंसर माननेवालों ने समझना चाहिए।


मां जगदम्बा की अर्चना फेमिनिस्ट होकर करें:

स्त्री-पुरूषों के समान अधिकारों के आंदोलन से जुड़िये।  फेमिनिज्म से नफरत मत करिये। फेमिनिस्ट बनें। समान अधिकारों का समर्थन करनेवाले पुरूषों ने दुनिया के सामने अपने फेमिनिस्ट होने के बारे में गौरव से बताना चाहिए। और अगर आप फेमिनिस्ट पुरूष हैं तो इस आंदोलन की वैचारिक अभिव्यक्ति तक ही अपने आप को सीमित मत रखिये, महिलाओं के अधिकारों के लिए अपने अधिकारक्षेत्र में लड़ें। इससे फेमिनिज्म यह महिलाओं का पुरुषों के विरुद्ध आंदोलन है ऐसा भ्रम दूर होने में महत्त्वपूर्ण मदद होगी। 

इस नवरात्रोत्सव में पारम्परिक धार्मिक विधियों से देवी मां की पूजा के साथ ही फेमिनिज्म और फेमिनिस्टों से नफरत न करने का निश्चय करें। समान अधिकारों का समर्थन करें। और इससे पहले महिलाओंने अपने हकों के लिए लड़नेवाले फेमिनिस्ट लोगों से नफरत नहीं करनी चाहिए। जब आप इस तरह से निश्चय करेंगे और उसके अनुसार कृति करेंगे तब मां जगदम्बा  आपके द्वारा की गई पूजा का यथार्थ में स्वीकार करेंगी। 

ट्विटर: @chaitanyapuja_ 


PS: जो भी मत मैंने व्यक्त किया है वह दीर्घकालसे अंदर ही अंदर चल रहे मंथन से आया है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत के अध्ययन से जो हिन्दू धर्म का आत्मा मुझे समझ में आता है और उससे जो विवेक हृदय में जागृत होता है उससे किसी भी समस्या पर निर्णय धर्म के अनुसार लिया जाए ये मेरा प्रयास रहता है। वह सार्वजनीन सार्वकालिक निर्णय नहीं है ना मुझे उसे देने का अधिकार है। हिन्दू धर्म प्रवाही है। समय समयपर बदलते समाज की आवश्यकतानुसार समाजव्यवस्था के नियम हिन्दू धर्म में बदल सकते है। यह मानवनिर्मित पन्थ न होने के कारण किसी विशिष्ट व्यक्ति की लिखी आज्ञाओं के अनुसार ही चलना हो ऐसा बंधन इसमें नहीं। इसलिए नियम बदलना आवश्यक हो तो बदलने चाहिए ऐसा मुझे लगता है।

Read in English: Why You Should Be A Feminist For Genuine Worship of Devi Maa
Read in Marathi: मंथन: निस्सीम देविभक्ताने फेमिनिस्ट का असायला हवे?

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