महंगाई के राजनैतिक फायदे: तुअर दाल का साइड बिजिनेस

अरहर या तुअर की दाल के बढ़ते दामों के बीच महाराष्ट्र में ९९ रूपए प्रति किलोग्राम दाल भाजप के स्टाल से मिल रही थी दिवाली के तोहफे के रूप में ये दाल या तोहफा 'खरीदने' का मौका 'जनता' को मिला। सत्ताधारी पक्ष के इस व्यावसायिक निर्णय पर आज के आलेख में कुछ प्रश्न

दुकानों में २०० रूपये प्रति किलो से मिलनेवाली दाल को भारतीय जनता पार्टी ने कम दरों में उपलब्ध कराया महाराष्ट्र में सत्ता में भाजप और शिवसेना है





इस चित्र में भाजप की ओर से ये दाल दिवाली का तोहफा  ९९ रुपये में है, ऐसा सन्देश भाजप के महाराष्ट्र नेताओं के चित्रों के साथ दिया है. ये सन्देश मराठी में है 

इसके अलावा बड़े बड़े होर्डिंग के जरिए भी इस व्यवसाय को जनता की मदद के रूप में प्रचारित किया गया 

दाल की क्वालिटी ख़राब थी ही, पर सत्ताधारी पार्टी ने जनता के मतों और विश्वास पर सस्ते में और तोहफे के रूपमें जनता को ये दाल दी इसलिए क्या जनता ने खुश होना चाहिए?


इस साइड बिजिनेस पर पाठकों के लिए कुछ प्रश्न:

  • क्या सत्ताधारी दल ने या किसी भी राजनैतिक दल ने जनता की मदद के नाम पर इस तरह से व्यवसाय करना उचित है?
  • क्या जनता के साथ ये विश्वासघात नहीं है?
  • क्या इसीलिए चुनाव होते हैं? क्या इसीलिए जनता मत देती है? 
  • क्या ये विक्रेताओं के साथ भी धोका नहीं है?
  • अपनी पार्टी के नाम से दाल बेचने की कल्पना साकार करनेवाले नेताओं के नेतृत्व को क्या कहा जाए?
  • महंगाई हो या कोई भी मुद्दा राजनेता अगर अपने मार्केटिंग और अपने दल की ब्रांडिंग की चिंता करे तो ऐसे नेताओं की विकास की कल्पनाएँ कैसी होंगी? 
  • महंगाई पर, अपने ही दल द्वारा महंगी वस्तुएं सस्ते में बेचने का समाधान आपको क्या उचित लगता है?

राजनीती और नेतृत्व पर अन्य पोस्ट: