सामाजिक वैचारिक बंदिस्तता के लक्षण और परिणाम

महिलाओं के प्रति सामाजिक वैचारिक बंदिस्तता के लक्षण और परिणामों की चर्चा पर आजका आलेख

वैचारिक बंदिस्तता व्यक्तिगत और सामाजिक:


रिजिड का हिंदी अर्थ क्या लिखूं इस पर मैंने बहुत सोचा। वैचारिक रूप में बद्ध होना और इसीलिए जीवन भी एक विशिष्ट खांचे में ही बंदिस्त होना, बदलाव पसंद ना होना, इसे रिजिड कह सकते हैं। एक व्यक्ति रिजिड हो तो क्षमता होने के बावजूद भी उस व्यक्ति का विकास एक सीमा से आगे नहीं बढ़ सकता। पर अगर समाज रिजिड होने लगे तो उसके परिणाम गंभीर और व्यापक हो सकते हैं। बहुत लोगों की सोच रिजिड होने लगे तो मनुष्यता, सभ्यता, और सुसंस्कृत होने के लिए हम सबका जो निरंतर विकास चलता रहता है, वह रुक सकता है। और आत्मविकास और सामजिक विकास रुक सकता है इतनाही नहीं, विचित्र गति से, अनुचित दिशा में भी जा सकता है। वैचारिक संकीर्णता का अगला स्तर रिजिडिटी को कह सकते हैं। संकीर्णता से भी ज्यादा नुकसान बंदिस्त विचार करते हैं। नुकसान की भी तीव्रता अधिक होती है। संस्कृति में देश काल और परिस्थिती के अनुरूप स्वाभाविक बदलाव होने का खुलापन होना चाहिए। हम भारतीय संस्कृति पर गर्व इस लचीलेपन के कारण ही महसूस करते हैं। लेकिन जब हम संस्कृति को और समाज को बंदिस्त करने लगते हैं तब असहनीय घुटन की शुरुवात होती है। घुटन स्थायी नहीं होती, लेकिन उसके परिणामस्वरूप आनेवाले बदलाव गंभीर और दीर्घकालिक हो सकते हैं। 


वैचारिक बंदिस्तता के कारण:


फिर प्रश्न यह उठता है कि इन्सान की सोच रिजिड क्यों बनती जाती है। इसका ठीक ठीक कारण समझना तो मुश्किल है क्योंकी इसके कारण अनेक हो सकते हैं, जो एक दुसरे से जुड़े हुए हो सकते हैं और एक दुसरे को प्रभावित भी कर सकते हैं। फिर भी मुझे लगता है, जीवन में केवल मूलभूत जरूरतों की पूर्ती के लिए अत्यधिक संघर्ष का होना या अत्यधिक सुविधा के कारण जीवन में संघर्ष की आवश्यकता ही न होना। फिर इंसान कहीं न कहीं 'जो जैसा है वैसा ही रहे' ऐसी सोच से जीने लगता है। अत्यधिक संघर्ष हुआ तो मनुष्य को आत्मविकास, वैचारिक स्वातंत्र्य के लिए समय नहीं मिल सकता और शायद वह जहाँ है, वही  रुकने को मजबूर हो जाएगा। लेकिन, सुविधाओं की सहज उपलब्धी के कारण प्रयासों की बिलकुल भी आवश्यकता न होना, इन्सान के मन को रिजिड रहने में ही बुद्धि और शक्ति व्यतीत करने को बाध्य करता है। 

प्रश्न बहुत ही गंभीर हो गया न? विषय को सरल करते हैं, अपने रोज के अनुभवों को देखकर

खुली साँसों की यादें:


ट्विटर पर बहुत कवी से छोटी छोटी कविताएँ लिखने का आनंद उठाते हैं। १४० अक्षरों की कविता ट्वीट करने का मजा ही कुछ और होता है। आप ट्विटर पर मेरे साथ जुड़े हो तो आपने पढ़ा ही होगा मुझे माइक्रोपोयम्स कितनी अच्छी लगती है। कुछ ही दिनों पहले कोजागिरी पौर्णिमा हुई। चन्द्रमा का सौन्दर्य खिल उठा थाकोजागिरी पौर्णिमा को मनाने की अलग अलग परम्पराएं हैं। महाराष्ट्र में हम चन्द्रमा के प्रकाश में दूध को ठंडा होने देते हैं। फिर रात को लोग आपस में मिलकर चाँद के साथ बैठकर पौर्णिमा को मनाते हैं।गाना या खेल हँसी मजाक ऐसा कार्यक्रम होता है। अब यहाँ लोग बहुत ऐसा कुछ उत्सव मनाते नजर नहीं आते, पता नहीं क्या बदल गया मंगलवार को मैंने काफियामिलाओ की ओर से आयोजित ट्विटर महफ़िल में हिस्सा लिया था। आयोजकों ने विषय दिया था, 'रात'। मैं टहलते टहलते चाँद की खूबसूरती निहार रही थी। ठंडी हवा का स्पर्श कविताओं को जन्म दे रहा था, उनको ट्वीट कर रही थी, साथ में अन्य कविताएँ पढ़ भी रही थी, एक घंटा कब बीत गया पता भी नहीं चला। रात और चाँद पर कविताएँ लिखने से पुणे की एक याद ताजा हो आई। पुणे ऐसा शहर है, जो भी वहां जाता है, उसे तुरंत पुणे से प्यार हो जाता है। अब के हाल तो मुझे पता नहीं, पर मैं जब वहां थी तब वह जगह महिलाओं के लिए पूरी तरह से सुरक्षित थी; वहां वैचारिक खुलापन और परस्परसम्मान की भावना बहुत नजर आती थी।लड़कियां आधुनिक या पारंपरिक कैसे भी रहे या अकेले घूमे उनको कोई समस्या नहीं होती थी। पुणे में तो रात में अकेले घूमना भी सुरक्षित था, कोई चिंता नहीं होती थी। 

पुणे में दिवाली, कोजागिरी जैसे उत्सवों पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। शास्त्रीय गायन, भावगीत गायन ऐसे कितने ही कार्यक्रम छोटे बड़े स्तर पर होते रहते हैं। चाँद और रात पर कविता लिखते समय मुझे ऐसे ही एक कार्यक्रम की याद ताजा हुई। चाँद पर हिंदी फिल्मों के गानों का कार्यक्रम था। उसमें उन्होंने मुझे निमंत्रण था।रात को ९-९:३० बजे से कार्यक्रम था। मैं और मेरी दो दोस्त, हम कार्यक्रम में गए थे।

कार्यक्रम के लिए प्रवेश नि:शुल्क था। दर्शकों के लिए केसर के दूध की व्यवस्था थी। वहां के युवकों ने प्रायोजकों के साथ यह कार्यक्रम आयोजित किया था। धीरे धीरे एक एक गाने शुरू हुए। एक के बाद एक सिर्फ चाँद पर हिंदी गाने...कितना खुबसूरत आयोजन था, मैं तो कभी भूल ही नहीं सकती। प्रेम के नाजुक और खुबसुरत भावों को उजागर करनेवाले वे सारे गीत थे। गीत और संगीत प्रेमियों के लिए आनंद और प्रेम के गीतों का उत्सव कोजागिरी का वह कार्यक्रम बन गया था। कुछ पुराने गाने मेरे लिए नए थे। रात धीरे धीरे चन्द्रमा के प्रकाश में मुस्कुराने लगी थी। मुझे अपने पसंदीदा गानों की भी याद आई तो मैंने और दोस्तों ने अपनी अपनी पसंद के गानों की विनती एक छोटेसे कागज पर लिखकर मंच के एक तरफ जाकर कलाकारों तक पहुचाई। मैं इंतजार कर रही थी...और थोड़ी ही देर में आधा है चन्द्रमा, रात आधी”  मेरा पसंदीदा गाना जिसकी मैंने विनती की थी, मंच पर बैठे गायक गाने लगे। रसिक भी गानों में खो रहे थे। रात के करीब डेढ़ बजे तक कार्यक्रम चला।समाप्ती के बाद हमने मंच पर जाकर कलाकारों से बात की। किसी भी अच्छे कार्यक्रम के बाद मुझे तुरंत उन कलाकारों  से मिलकर अपनी दिल की भावनाएं उनको बताना हमेशा अच्छा लगता है। मैं मराठी नाटक देखती थी तब भी नाटक के बाद रंगमंच के पीछे जाकर कलाकारों से बात करती थी। 

रात के डेढ़ बजे हैं और अब घर कैसे जाएंगे ऐसी चिंता कुछ ज्यादा मन में नहीं थी। हम लडकियां ही थीं, आने जाने में कोई समस्या नहीं आई। किसी ने किसी महिला का चरित्र जज करने का तो कोई सवाल ही नहीं था पिछले कुछ वर्षों में पहले जैसे हालात नहीं रहे।आज यह सब यादें सिर्फ यादें ही लगती है। आज महिलाओं के लिए जो हालात हैं वह देखकर लगता है, क्या ये सब सपना था? मैंने वहीँ हूँ, जिसने ये आझाद जिन्दगी देखी है। यह तो मेरेही जिन्दगी के पल हैं। पुणे में आज क्या हालात हैं मुझे पता नहीं पर एक समाचारपत्र में पढ़ा था कि लड़कियां कह रही थी, लोग घूर घूर के देखते हैं, छेड़ते हैं, और भी परेशानियाँ बड़ी है। मुझे लगा, पुणे इतना कैसे और कब बदल गया? 


बंदिस्त साँसों की घुटन:


अबके बदले हालात का एक अनुभव है। दो-तीन वर्ष पहली की बात है, मैं एक दिन रात को ट्वीट कर रही थी। मुझे देर रात काम करना पसंद है और आखिर ये मेरी जिन्दगी है। एक सज्जन ने मुझसे ट्विटर पर पूछा, "क्या मैं पूछ सकता हूँ, इतनी रात को आप कहाँ से ट्वीट कर रही हैं?" मेरा उनसे कोई परिचय नहीं था।उन्हें मुझसे इस तरह का प्रश्न पूछने का कोई हक़ भी नहीं था।लेकिन, महिला भी मनुष्य है और उसकी अपनी जिन्दगी जीने का उसे पूरा हक़ है, इतनी विचारक्षमता की उम्मीद करना कभी कभी ज्यादा लगता है। उस दिन के बाद उन्होंने मेरे बारे में क्या मत बनाया और निष्कर्ष निकाला पता नहीं पर अन्फोलो कर दिया। 

ये समस्या सोच की है, रिजिडीटी की है। मैंने धुले में एक कार्यक्रम में पढी लिखी खुद नौकरी करनेवाली महिलओंसे, 'लड़कियां सुनती नहीं, ऐसे वैसे कपडे पहनती है,' ऐसी शिकायत सुनी। उस पीढ़ी की महिलाएँ जो अपने समय के हिसाब से आधुनिक समझनेवाले कपड़े पहनती आई हैं, वे आज ऐसी शिकायत कर रही थी। फेसबुकपर भी मैंने बहुत रिजीडीटी देखी है। सोच में खुलापन, दुसरे के विचार समझने और ठीक हो तो स्वीकारने की उदारता रिजिड सोच के लोगों में नजर नहीं आती। सोशल मिडिया से क्रांति सी होती दीखती है, लेकिन सोच वही हो तो फिर इतने शक्तिशाली माध्यम का भी दुरुपयोग ही होता है। फेसबुक के अनुभवों की बात करूँ तो, सभ्य समझा जाए ऐसे पुरुष, महिलाओं के कपड़ों पर टिपण्णी करते हैं, उनके रहन सहन की अभद्र शब्दों में आलोचना करते देखे हैं। बलात्कार को महिलाओं का स्टंट कहते देखा है। माता पिता का कहा ना माननेवाली लडकी के साथ बुरा (हत्या भी) ही होना चाहिए ऐसे कहनेवाले भी युवक आजकल देखने को मिलते हैं। फेसबुक पर तो ये नफरत बहुत ही हो गई थी। मैं पहले बहस करती थी, लेकिन अब मुझे इस रिजिड सोच से इतनी घृणा होती है कुछ भी बोलने का मन नहीं होता। ये बदलाव क्यों आ रहा है, समझ में नहीं आता। शायद तकनीक सहजता से आये तो उसका महत्त्व और उपयोगिता समझ में नहीं आती और फिर दुरुपयोग होता है

एक बार मैं बिजली का बिल भरने गई थी। बहुत लम्बी कतार नहीं थी। ५-६ लोग थे बस। महिला तो केवल मैं ही थी। आम तौर पर लेडिज फर्स्ट माना जाता है, पर लोगों को किसी कतार में महिला हो तो कितनी तकलीफ होती है, महिला को पहले अपना काम करने दिया तो हमें खड़ा रहना होगा ऐसी भी तकलीफ होती है, ये सब मैंने यहाँ देखा है, इसलिए क़तार में, मैं पुरुषों को पहले अपना काम करने देती हूँ। सभ्य लोगों के साथ कोई समस्या नहीं होती, मैं केवल असंस्कृत लोगों की बात कर रही हूँ। उस दिन मैं अलग एक तरफ खडी रही। यह तो साफ दिख रहा था कि वे लोग आराम से अपना बिल भर सकते थे। फिर भी किसी स्कूल के बच्चे की तरह आपस में पास पास होकर उनमें पहले बिल भरने की होड़ लगी। मैं और थोडा पीछे हट गई ये दिखाने के लिए कि मैं तो खडी रह सकती हूँ....सुसंस्कृत व्यक्ति को इसका अर्थ समझमें आता। कुछ लोगों को समझ में आया कि उनका बर्ताव कितना मूर्खतापूर्ण था। लेकिन, ऐसे कितने ही प्रसंग होते हैं, जहाँ रिजिड सोच दूसरों को परेशान करती है। ऐसे प्रसंगों से किसीसे सिर्फ वह महिला है इसलिए गुस्सेसे, पूर्वाग्रह से बर्ताव करना उनके अस्तित्व का और मनुष्य होने का अपमान करना जैसी  मानसिकता व्यक्त होती है। अकेली महिला या युवती कहीं कुछ खरीदने जाए, अकेले कुछ काम करे तो रिजिड सोच के लोग गुस्सा होते हैं। 

केशभूषा से, अपने विवाहसम्बन्धी विचार स्वतन्त्ररूपसे व्यक्त करना, अपने निर्णय खुद लेना इस सबसे रिजिड लोगों को कितनी आपत्ती होती होगी, यह लिखने की आवश्यकता नहीं। 


संस्कृत में एक सुभाषित है, जिसका अर्थ है, नया या पुराना इसमें से जो उचित है, विद्वान हमेशा उसीका आग्रह रखते हैं। इस सुभाषित से रिजिडिटी का ही विरोध किया गया है 


महिलाओं के विषयपर चैतन्यपूजा में अन्य पोस्ट: