कविता: अदृश्य जादुगर

अभी मैंने खिडकीसे सुंदर से रंग देखें, ठीकसे देखने के लिए पडदा हटाया और… 






केसरिया और नीला..
एक हलकीसी हरी छटा..
नीले में मिलाके..?
एक गुलाबी लहर
और फिर कुछ 
केसरियां लहरें फिरसे..
नहीं..नीली लहरें ज्यादा..
हरे में मिलाई नीली 
जैसे कोई बैठा हो वहाँ
पडदे के पीछे
आसमान में छुपा 
रंगों के पीछे 
अज्ञात अदृश्य चैतन्य
एक महान कलाकार
रंग बिखेरता हुआ...
दुनिया में खूबसूरती फैलाता हुआ
आसमान में जादुई रंगों की छटाओं से
मनमोहक दृश्य बनाता हुआ..
पल पल बदलते दृश्य
पल पल बढ़ता सौन्दर्य
वह कौन है...?
क्यों नहीं दीखता..
यह कला कौनसी है ?
उसे यह इतने नए नए दृश्य बनाने में
नयी नयी छटा बिखेरने में
इतना कम समय कैसे लगता है..
वह कौन जादुगर है
मेरी खिड़की के सामने
यह रंगों का उत्सव
हँसते हँसते बना रहा है..
मैं मुस्कुरा रहीं हूँ..
और
वह जादू का खेल
अँधेरे में गायब हो रहा है..
और वह जादुगर?
वह कहाँ गया...
हाँ..
वही मोहिनी का कृष्ण
मैंने तो पहचान लिया था..
रंगों के उत्सव
के बाद  
मेरे शब्दों को 'उत्सव' भी तो उसेही करना था..
कब चुपकेसे दिल में आ गया
ढलती शाम में
पता ही नहीं चला..
मैं तो खो गयी थी
आसमान के अद्बुत रंग देखके..
यहाँ यह जादू
शब्दों में कब उतारने लगी...  
कब उस जादुगर में 
हाँ कृष्ण में 
खुद को ही भूल गयी 


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टिप्पणियाँ

  1. Krishna hamesha chup kar khelta rehta hai, uski hasee mein jaadu hai :)

    Ati-Sundar Kavita Mohini... :)

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    उत्तर
    1. हाँ आरती ! कृष्ण ऐसाही नटखट है..छुपकर खेलता रहता है..:-)

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