श्वासयज्ञ: भाव चिंतन

चैतन्यपूजा में महायोग पर प्रकाशित स्तोत्र 'श्वासयज्ञ' के अर्थ और भावों का चिंतन।

शोक मोह सब छूट गए: सुख दुःखों से ही जीवन है। फिर भी कोई ये नहीं चाहेगा कि जिंदगी में शोक के प्रसंग से गुजरना पड़े। परंतु दुःख शोक को अनुभव करना ही न पड़े ऐसा शायद ही किसीका जीवन हो।

महायोग साधना के प्रति पुनः पुनः कृतज्ञता भाव हृदय में इसलिए उठता है क्योंकि साधना शोकग्रस्त होने से, मोहग्रस्त होने से रक्षण करती है। और कभी मन शोक के आधीन या मोहग्रस्त हो ही जाए तो इनसे उसे छुड़ाने का कार्य भी साधना ही करती है।


शोक मोह छूट गए कहनेसे अर्थ है उस अनुभूति का।अनुभूति साधना का अंतिम लक्ष्य नहीं, केवल एक पड़ाव होता है। साधनाको अनुभूति के कितनेही पड़ाओं से भी आगे बढ़ना होता है और अपना लक्ष्य पाना होता है। मुक्ति का अनुभव हृदय में स्वाभाविक स्थिर होना, ये केवल क्षणिक अनुभूति न रहकर पूरी तरह से और हमेशा के लिए शोक मोह से मुक्त होना यही साधना का लक्ष्य है। इस पंक्तिसे लिखने से मेरा अर्थ ये नहीं कि मैंने लक्ष्य पा लिया।

जब श्वासयज्ञ में मन मिट गए:
मन एकही होता है पर उसके कार्यकलाप अनन्त होते हैं; हजारों लाखों विचार, संशय, चिंताएं, भ्रम ऐसे अनेकों कार्यकलाप हमारी इच्छासे और अनचाहे भी प्रतिक्षण चलते रहते हैं। साधना में जो श्वासयज्ञ होता है उसमें इन सबकी आहुति हो जाती है और मन का अर्थात उनके अनन्त कार्यों का यज्ञ होता है। उससे ज्ञान, शांति और प्रेमरूपी अमृत यज्ञ के प्रसाद के रूप में प्राप्त होता है।

(मेरे लिए लिखने की मुख्य प्रेरणा साधना ही रही है और साधना के कृपाप्रसाद से मनके संशय मिटने की प्रक्रिया लेखन में व्यक्त होती है इसलिए मेरे मराठी ब्लॉग का नाम भी विचारयज्ञ है।)






अनमोल साधना, साथ निरंतर:
महायोग की ये साधना अनमोल है। दुनिया की किसीभी वस्तु से इसको रिप्लेस नहीं किया जा सकता है। इसे खरीदा भी नहीं जा सकता। सद्गुरु की कृपा नहीं होती तो ऐसी अनमोल साधना सहज प्राप्त नहीं होती।

कुण्डलिनी जागरण के लिए हठयोग का मार्ग ही ज्यादा प्रचारित है। सुगमतासे किसी अन्य मार्ग से या केवल किसी आसन से ये कार्य होना संभव है ऐसा मुझे नहीं लगता। मेरी जानकारी में ऐसा कोई उदाहरण भी नहीं जिन्हें ये सहज सम्भव हुआ हो।

हठयोग के पथ पर चलना लगभग असंभव है। उसकी शिक्षा दीक्षा देने के लिए सच्चे योगी सद्गुरु आज के जमाने में मिलने की सम्भवना ना के बराबर है। गुरु मिल भी जाए तो भी आगे का मार्ग बहोत कठोर तपस्यासे ही सम्भव है।

पर ऐसे मुश्किल और दुर्लभ योग की साधना को बिना कष्टमय तपस्या किये केवल गुरुदेव की कृपा से मिलना ये निश्चित ही अनमोल है।

साथ निरन्तर: मां जिस तरह से बालक की ही सतत चिंता करती है, उसका पालन रक्षण करती है वैसे ही साधना का साथ है, सूक्ष्म रूपसे।

साधना हो नहीं पाए या साधना में आनेवाले अनुभव कम हो जाये, या कभी लगे की साधना पर विपरीत परिणाम हो गया है तब भी साधना के लिए समय देने पर साधना की गति महसूस होने लगती है। हर स्थिति में उस स्थिति के अनुसार अन्तःशुद्धि का जितना कार्य करने की अनुकूलता और स्वातन्त्र्य उसे प्राप्त है वह साधना निरन्तर जारी रखती है।साधक को साधना कभी अपने से दूर नहीं करती।

क्षण क्षण जीवन पावन करती जाए:
साधना का अंतिम लक्ष्य ज्ञान है। आत्मा और परमात्मा का एकत्व जान लेना ही ज्ञान है। साधना की हर क्रिया उस ज्ञान के लक्ष्य को जानने का अखण्ड प्रयास होती है।
और ज्ञान के जैसा पवित्र इस दुनिया में कुछ और नहीं। ऐसा श्रीमद्भागवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा  है।

"न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।"  (अ. ४: ३८ )

साधना ज्ञान से जीवन को पावन करती है। 


दुर्लभ योग सहज हो गए: 
जैसा की उपर कहा गया है, हठयोग की सिद्धि अत्यंत दुर्लभ है। पर महायोग स्वयं ही सिध्द योग होने के कारण योग की दुर्लभ से दुर्लभ अनुभूति और सिद्धि नियमित साधना से सहज हो जाती है।

मुश्किल योग करने की आवश्यकता ना होकर, साधना अपने आप ही साधक से आवश्यक योग करवा लेती है।

ज्ञान, भक्ति रहस्य खुलते जाए:
ज्ञान के रहस्य, भक्ति के विभिन्न भाव जो सब हम आध्यात्मिक पुस्तकों में देखते हैं, जिनका वर्णन हमेशासे सुनते आए हैं वे ह्रदय से ही उठने लगते हैं। लिखित और वर्णित ज्ञान के तत्त्वार्थ और भावार्थ को समझना, उनका रहस्य समझना और
अज्ञात का रहस्यों का भी प्रकटन होना ऐसा भाव यहाँ है।







अनायास शोधन, नित्य गतिमान: 
अनायास शोधन: जिस तरह से शरीर की स्वच्छता स्नान से होती है, मनकी शुद्धि साधना से होती है। इसका अर्थ ये नहीं कि मन अशुद्ध होता है, बल्कि ये है की मन के अनन्त विचाररूप तरंग मिट जाते हैं और उनके शांत होनेपर विवेक और ज्ञान का उदय होता है। इसे शुद्धि या शोधन कहते हैं क्योंकि जन्मों जन्मों के प्रभाव अनंत होते हैं। वे ही ज्ञान को आवृत्त किये रहते हैं।

नित्य गतिमान: अन्तःशोधन की हर आवश्यक प्रक्रिया साधक के विशिष्ट कष्टमय प्रयासों के बिना ही साधना द्वारा होती है। और ये प्रक्रिया नित्य सूक्ष्मरूपसे अपने पथ पर सदा गतिमान रहती है। साधना के लिए बैठना किसी कारणवश ना हो या कुछ समय के लिए साधना खंडित हो जाये तब भी शक्ति की गति धीमी भलेही हो जाये पर साधना गतिमान अवश्य रहती है।

रोम रोम पुलकित चैतन्य हो जाए:
दुनिया अनंत रूपों में केवल चैतन्य का ही आविष्कार है। वही सर्वोपरि चैतन्यशक्ति रोम रोम में महसूस होने लगे ऐसा भाव इस पंक्ति में है। चैतन्य ही अनुपम आनंद का कारण है। आत्मा का स्वरूप, परमात्मा का स्वरूप और उन दोनों का एकत्व ये केवल चैतन्यशक्ति ही है ये महसूस होने लगे यह भाव है।


उर्ध्वगामी सदा, लक्ष्यध्यास लिए
राह मोक्ष की चलती जाए: 
जब लक्ष्य का ध्यास हमारे मन में सदा रहता है तब हमारे प्रयास भी लक्ष्य की दिशा में सतत होने लगते हैं और जब तक वह लक्ष्य प्राप्त न हो जाये बीचमें कहीं रुकने की इच्छा भी नहीं होती। पर लक्ष्य प्राप्त ना हो तो मन निराश हो सकता है। अध्यात्म का लक्ष्य तो अज्ञात को जानने समझने जैसा है। इसलिए इसमें साधक के निराश होने की सम्भावना अधिक होती है।

महायोग में लक्ष्य ध्यास साधक की मुक्ति के लिए कुण्डलिनी शक्ति को होता है। इसलिए साधना करने में हर तरह से साधना शक्ति स्वयं ही सहायता करती है।

ये मुक्ति की राह तब तक चलती रहती है जब तक साधक अपने लक्ष्य तक पहुंच ना जाये।और उसके बाद भी आगे की ओर ही बढ़ती रहती है। 

पग पग रक्षण पथ प्रदर्शन: 
साधक की साधना सुचारू रूपसे चलती रहे इसलिए साधना या शक्ति साधक का रक्षण करती रहती है और फिर भी विघ्न आये तो उन्हें मिटाकर आगे के पथ को प्रकाशमान करती है। विघ्न साधक के जीवन में या मनमें या शरीर में अंतर्बाह्य कुछ भी हो सकते हैं। पर उनसे साधना में जो बाधा निर्माण होती है, उनका निर्मूलन करने का कार्य भी साधना ही करती है। इसका अर्थ ये समझ लेना नहीं कि साधना से शरीर या मनकी व्याधि दूर हो सकती है और इसलिए डॉक्टर की या दवाइयों की आवश्यकता ही नहीं। शक्ति का उद्देश्य साधक की कल्याण के मार्ग पर प्रगति निर्विघ्न रूप से चलती रहे ये है।








विघ्न मिटा प्रकाश फैलती जाए
योगसरिता उन्मुक्त बहती जाए:
महायोग की साधना योगसरिता है। इसे उन्मुक्त बहना पसंद है। इसीलिए मुक्ति के बाद भी साधना आगे चलती ही रहती है। ऐसा कोई ठिकाना नहीं कि जहाँ ये रुक जाए और सब कुछ प्रप्त कर लिया है ऐसा समझ ले। उन्मुक्त का अर्थ हर बन्धन से मुक्त होना ये यह जानती है। 

इसका एक अर्थ ये भी होगा कि जो पानी प्रवाहित नहीं है, एक ही सीमित स्थान पर बंदिस्त है वह अस्वच्छ हो जाता है। विचार अगर बंदिस्त हो जाये तो दूषित हो जाते हैं दूषित पानी की तरह। लेकिन नदी प्रवाहित है इसलिए इसका पानी प्रतिक्षण नया होता रहता है। ये योगसरिता ये साधक को बंदिस्त होने नहीं देती, साधक के विचारों को भी मुक्त करती है।


धैर्यसंजीवनी भगवती कुण्डलिनी: 
जो शक्ति धैर्य के रूप में प्रकट होकर जीवन के लिए संजीवनी बनती है। धैर्य के बिना जीवन मृत व्यक्ति के समान बन सकता है। विपरीत से विपरीत स्थिति में भी अगर धैर्य बना रहे तो जीेवन की कठिनाइयों को सुलझाना आसान होता है। पर धैर्य के बिना तो छोटी छोटी समस्याएं भी दुस्तर लगने लगती है। ये धैर्य की शक्ति तो माँ भगवती कुण्डलिनी शक्ति स्वयं ही है।

काल कर्म बन्ध मिटाती जाए:
कर्मों के बंधन ही जन्मों का कारण है और इसीलिए काल के बंधन भी है। अध्यात्म का उद्देश्य इन बन्धनों से मुक्त होना ही है। साधना की प्रक्रिया ये बंधन मिटाती जाती है वो भी इस तरह से की साधक के लिए ये प्रक्रिया कठिन ना हो।निष्काम कर्मयोग कर्मों के बंधन मिटा सकता है लेकिन इसका यशस्वी आचरण बहुत मुश्किल है। ज्ञानयोग तो समझना भी मुश्किल है।लेकिन साधना विभिन्न योगों की प्रक्रियाओं का साधक के कल्याण के लिए जो आवश्यक है उसके अनुसार अनुभव कराके सारे बंधन मिटाती है।आगे बढ़ती है।





ध्येय पथ की चिंता अविरत:
साधक अपने ध्येय को भूल भी जाये  फिर भी साधना को उसका अर्थात ध्येय और साधक का विस्मरण नहीं हो सकता।

निष्ठा पालन कराती जाए:
निष्ठापालन:  किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए आवश्यक नियमों का पालन और अपने प्रयासों में निष्ठा बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। योगसाधना में तो नियम बहुत जरूरी होते हैं।महायोग की साधना के लिए भी नियम हैं। उनमें आहारसम्बन्धी नियम विशेषतः पालन करने के लिए मुश्किल होंगे ऐसी एक धारणा लोगों के मन में है। यहां ये बताना जरूरी है कि आहार विषयक कोई भी बंधन जैसे शाकाहार यशस्वी योगाभ्यास के लिए हैं। इसे धर्म या श्रद्धा के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता। और नियम भी सिर्फ उन्हीं के लिए हैं जिन्हें साधना के अनुभव की इच्छा है।

महायोग का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है कि मनको जबसदस्ती नहीं मोड़ना है, या साधना में किसी भी प्रयास की मनपर जबरदस्ती नहीं करनी है और कुण्डलिनी शक्ति के प्रभाव से ही आवश्यक सब कुछ होता है। इसलिए ये नियम पालन करने की इच्छा हो तो निष्ठा भी साधना ही निभा लेती क्योंकि निष्ठा उस माँ शक्ति का ही एक रूप है जैसे की धैर्य है। 


गुरुकृपा कल्याणकारिणी
भ्रम तम मिटाती जाए:

अज्ञानजनित भ्रम अंधकार है। ज्ञान ही प्रकाश है। हर प्रकारसे साधक का कल्याण करनेवाली, भ्रम तम को मिटाने वाली यह शक्ति सदगुरुदेव की कृपा शक्ति ही है। गुरुदेव की कृपा के अलावा जीवन में कुछ भी नहीं। गुरुकृपा से ही साधना की शक्ति प्राप्त है और धैर्य और निष्ठा के रूप में जो माता है वह गुरुकृपा ही है।






महायोग के बारे में जो भी मैंने लिखा है, वह जैसे जैसे समझ में आता गया, रहस्य भेद खुलते गयें व्यक्त करने का प्रयास किया है। यह प्रयास केवल एक साधक के तौर पर ही है। अतः इसमें दोष रह जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।मेरे दोषों को पाठक क्षमा करेंगे ऐसा मुझे विश्वास है।

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