व्यंगकथा: डीग्री मिलेगी कहीं, १०-१० में चार?

आज की प्रस्तुति एक व्यंगात्मक लघुकथा। हमारी कथा के नायक हैं, अजित मंत्री। इनका उपनाम 'मंत्री' है, इसलिए अकड़ भी वैसी ही, अपने आपको मंत्री ही समझते हैं। अजित साहब की सबसे खास दो बाते हैं, ये बहुत अच्छा भाषण देते हैं (उनके हिसाबसे), और इन्हें अभिनय भी बहुत पसंद है। सुनने का अभिनय जब भी करते हैं, वाकई ध्यान से सुन रहे हैं, ऐसा लगता है। इनकी जिंदगी बड़ी ही हैपनिंग है।


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परसों एक दुकान में मोलभाव कर रहे थे,

देख भाई १० रुपये से ज्यादा नहीं दूंगा। एक कागज के लिए इतना नाटक?

तुम्हें क्या लगा, अनपढ़ समझकर बेवकूफ बनाओगे? १० रुपये से एक पैसा ज्यादा नहीं मिलेगा, इस कागज का।

मैं चाहूँ तो ऐसे हजारों कागज बनवा लूँ। चुपचाप देता है या जाऊं दूसरी दुकान में?

वो तेरे पड़ोस का छोटू तो ऐसे कागज के सिर्फ पांच रुपये बोल रहा था। हमने भी व्यापार किया है, तू किसे सीखा रहा है?

जल्दी सही भाव बोल दे, मेरा समय मत बर्बाद कर.

दुकान मालिक कबसे बात करने की कोशिश कर रहा था पर अजीत साहब चुप बैठनेवाले बुद्धू नहीं हैं। जबान हमारी है, हम बोल सकते हैं तो हम तो बोलते रहेंगे। देश की खातिर बोलते ही रहेंगे मरते दम तक।

"चल भाई, १० रुपये लगा दे और वो कागज मुझे दे देदेश की सेवा कर ले थोडीसी। तेरा भी भला, देश का भी भला!"

दुकान मालिक ने आखिर अजित की बात को तोड़कर कहा,

साहब, माफ़ करना वो मामूली कागज नहीं है। वो मेरी एम् टेक की डिग्री है। बहुत मेहनत से फर्स्ट क्लास आया थानौकरी नहीं हम लोगों को। रिश्वत देने के पैसे नहीं मेरे पास और देश को लूटने की विपरीत बुद्धि भी नहीं। बड़ी मुश्किल से ये छोटीसी दुकान लगायी है। फिर भी एक अनपढ़ की ये हालत ना होकर एक पढ़े लिखे गरीब का छोटासा व्यवसाय है, ऐसा आप जैसे महान और दयालु लोग देखें, इसलिए रात दिन एक करके मिली हुई डिग्री मैंने यहाँ लटकायी है। हम पढ़े लिखे हैं सर, बुद्धि से कमाते हैं, रिश्वत से नहीं। 

माफ़ कीजिये, ऐसे कागज खरीद फरोख्त के नहीं होते। 

ज्यादा पढ़ना भी क्या अब गुनाह बन गया है१० रुपये तो क्या आप १० लाख भी दे दें, ये कागज बिकाऊ नहीं होता। इसे पाने के लिए बरसों मेहनतसे पढाई करनी पड़ती है।

क्या दो वक्त की रोटी के लिए अपने दिमाग का उपयोग करना अब गुनाह हो गया है? क्या पढ़ना लिखना और बुद्धि से व्यवसाय करना गैरकानूनी हो गया है अब?”

दुकान मालिक पहले तो पढ़ पढ के परेशान होता था, बाद में दिन बदल गए और ऊँची शिक्षा प्राप्त लोगों से नफरत का जमाना आ गया, ये देखकर बेचारा फिर परेशान रहने लगा। सबसे एकही सवाल पूछता, "क्या पढना लिखना गैरकानूनी हो गया है?"

अजितजी को खुद को कभी कुछ पढ़ने, लिखने, सुनने, सोचने, समझने की आदत तो थी नहीं, ना ही उनके पास इतना समय था। इतनी किसमें हिम्मत थी कि अपने ही प्यार में दीवाने हो चुके अजित को कोई सोचनेवाली बात भी कहे।

जाहिर सी बात है, अजित को दुकान मालिक की बात कुछ समझ में नहीं आई, वे बस बड़बड़ाते चले गए।

"१०-१० वाला कागज क्या माँगा, ये तो मुझे ही भाषण देने लगा। अरे भाई डिग्री मिलेगी, कहीं १० -१० वाली चार, टिकाऊ मजबूत?"

अस्वीकृति: ये लघुकथा पूर्ण काल्पनिक है और आपको किसी भी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता नजर आए तो ये आपकी कल्पना हो सकती है

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