भाजप की दिशाहीन अव्यवस्थात्मक नीतियां

बिहार में भाजप की हार पर चर्चा हो रही है| भाजप समर्थकों का अभी भी मानना है कि इस हार के परिणाम अच्छे ही होंगे| भाजप विरोधकों में दिल्ली के चुनावों के बाद और अब भी तुरंत अति उत्साह का वातावरण नजर देखने में आ रहा है| 

इस चुनाव का निर्णय एक निश्चित स्थाई बदलाव लाएगा या नहीं ये तो आनेवाला समय ही बताएगा| किसी भी निर्णय पर अभी पहुंचना जल्दबाजी होगी| लेकिन ये बात तो लगती है कि भाजप के 'तरीकों' को जनता ने नकारा है|

इन तरीकों की चर्चा आजके आलेख में| 


भाजप की नीतियों में कमियां:

एक बार यशस्वी होने पर वही फार्मूला बार बार प्रयोग में लाने का मोह होना स्वाभाविक है| लेकिन लोग इससे उब सकते हैं, जैसे एक ही चुटकुला बार बार सुनाने से लोग हसना बंद कर देते हैं|

  1. भाजप के नीति में मोदीजी की रैलियां और उनके भाषण, भाजप की दृष्टी से प्रमुख 'आकर्षण' रहता है|
  2. सोशल मीडिया प्रचार, विरोधियों पर आक्रामक आरोप/आलोचना (तर्क और शालीन खंडन करने के बजाए),
  3. कहीं धर्मनिरपेक्षता का चेहरा, कहीं हिंदुत्व का चेहरा, कहीं विकास, कहीं गोमांस का मुद्दा, कहीं आरक्षण का विरोध, कहीं समर्थन, कहीं राष्ट्रवाद ये किसका कैसे फायदा हो सकता है यह देखकर कम अधिक प्रमाण में चर्चा में लाना| एक तरह से ये नीति न होकर पेन, साबुन, कंगी से लेकर कपडे धोने के पावडर, बर्तन, चम्मच, चेहरे पर लगाने के क्रीम जैसी चीजें बिना किसी ब्रांड के सस्ते में बेचनेवाले की तरह दिखती हैं| इस तरह का सामान दिखने में आकर्षक होता है, कीमत भी कम होती है, सब कुछ एक ही विक्रेता के पास होता है, लेकिन इसमें से एक भी सामान ओरिजिनल ब्रांड नहीं होता|  

मोदीजी द्वारा चुनाव प्रचार:

मोदीजी का प्रधानमंत्री बनने से पहले रैलियाँ करना और प्रधानमंत्री बनने के बाद राज्यों में चुनाव प्रचार करना इनको जनता और दुनिया कैसे देखेगी इसमें बहुत अंतर है| जब चुनाव जीतने का लक्ष्य सामने हो तो दुनिया में क्या सन्देश और छवि जा रही है उसको दुर्लक्षित किया जाता है| जब मोदीजी विदेश में होते हैं तो देश के प्रश्नों की ओर दुर्लक्ष होता है|

प्रधानमंत्री बननेसे पहले लोगों के मनमें विकास की आशा, गुजरात मॉडल के बारे में सुनी बातें, ये उम्मीदें निर्माण कर रही थी| तब उम्मीदे ज्यादा थी क्योंकी तब वे राज्यस्तरीय नेता थे| इनको मौका मिलना चाहिए ऐसा लोगों को लगता था, लोग घोटालों से और कोंग्रेस के लम्बे शासन से भी तंग आ चुके थे|

प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदीजी ने विदेशों में सम्बन्ध सुधारने पर सबसे बड़ा जोर दिया, लेकिन उसके परिणाम उतने अनुरूप नहीं दिख रहे| अपनी प्रतिमा बहुत बड़ी और यशस्वी दिखाने का प्रयास उनके हर काम में दिख रहा था| किसी प्रधानमंत्री का अपने पक्ष के चुनाव प्रचार करना वो भी राज्यों के चुनाव में अच्छा तो समझा जानेवाला नहीं था|

भाजप पर जब भी कोई आरोप लगता है, तब भाजप समर्थक कांग्रेस का उदाहरण देते हैं| उन्होंने भी तो यही किया था| इससे क्या साबित होता है, भाजप और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं है? अगर लोग कांग्रेस को छोड़कर भाजप से उम्मीद कर रहे हैं तो उन्होंने वो उम्मीद नहीं करनी चाहिए? अगर भाजप समर्थक यही सन्देश देना चाहते हैं तो जनता कोई अन्य पर्याय चुने इसमें आश्चर्य नहीं|

पहले से ही दुनिया भर में 'देश का डंका बजानेवाले' की प्रतिमा बनाने के बाद राज्य के चुनाव के लिए रैलियां करना स्वीकार्य नहीं लगता| देश में महंगाई बढ़ रही है, और सरकार के मंत्री बिहार चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं, यह दृश्य आश्वासक निश्चित नहीं था|

प्रधानमंत्री बनने से पहले लोगोंने उनके भाषणों पर विश्वास किया लेकिन अब लोगों को मोदीजी के काम से उनके भाषणों पर कितना विश्वास करना है, ये तय करना आसान है| अब सिर्फ भाषण काफी नहीं थे, सिर्फ सोशल मिडिया प्रचार या मार्केटिंग काफी नहीं था| राजनीती में बिझनेस की मार्केटिंग नीतियां पूरी तरह से यशस्वी नहीं हो सकती| बिजनेस हो या राजनीती लोगों में विश्वास निर्माण करना आवश्यक ही है| अपमानजनक भाषा से तो विश्वास टूटता है|

प्रधानमंत्री स्थानीय स्तर पर भी अनुचित भाषा का प्रयोग करें तो भी उसकी आंतरराष्ट्रीय खबर बनेगी| राज्य के नेता ने बयान देना और विश्व के प्रभावशाली नेता - प्रधानमंत्री ने कोई बयान देना इसमें प्रधानमंत्री के बयान को ज्यादा गंभीरता से लिया जाएगा और अगर वह बयान अनुचित हो तो प्रतिक्रिया और बदनामी होने का proportion भी ज्यादा रहेगा|

जब बड़े बड़े राष्ट्रों में हमारे प्रधानमंत्री के जाने के बड़े बड़े उत्सव (हम) करते हैं, एक तरफ चुनावों के लिए रैलियां करते हैं तब नेपाल जैसे मित्र राष्ट्र से सम्बन्ध ख़राब होना बहुत ही ख़राब दृश्य दिखा| नेपाल से सम्बन्ध बिगड़े और नेपाल की बात भारत UN में उठाए, इतना बुरा तो कांग्रेस शासन में भी नहीं हुआ था|

भाजप/संघ के विभिन्न पदों के लोग अलग अलग मंच पर अलग अलग टोन, मृदु, आक्रामक, कभी भड़काऊ, कभी तुष्टीकरण, कभी विकास इस्तेमाल करते हैं| विविध स्तर के प्रतिनिधी भी अलग अलग रूप में लोगों के सामने आते हैं| फिर किसी बात पर बवाल हो तो हमारा आपस में सम्बन्ध नहीं कहकर जिम्मेदारी से हटना उनको आसान लगता है| पर समाचार सब जगह पहुँचते हैं| लोग तो सच्चाई समझ ही जाते हैं, किसी और पर दोष मढने से क्या फायदा? अलग अलग रूपों को धारण करने का प्रयास हर वर्ग को प्रसन्न करने का 'दिखावा' लगता है जिसमें इमानदारी कम ही नजर आती है| लेकिन, इस तरह की नीति का परिणाम विपरीत भी हो सकता है कि सारे वर्ग ही अप्रसन्न हो जाए|


सोशल मीडिया प्रचार नीतियां:

हर विरोधी आवाज को सोशल मीडिया पर अपमानजनक भाषा का प्रयोग करके बंद करना और कितने दिन सफल होगा? अब हर पार्टी की सोशल मीडिया टीम सक्रीय हो गई है| दूसरी बात ये भी है कि सोशल मीडिया पर कितनी अभद्र भाषा में किसका अपमान किया इससे कोई भारत की छवि अच्छी तो नहीं जा सकती| आंतरराष्ट्रीय मीडिया को भले ही हिन्दूविरोधी साजिश के नाम से प्रचारित किया जाए, लेकिन कोई भी व्यक्ति समाचार के तथ्य पढना पसंद करेगा या ट्विटर क्या  ट्रेंड करवाया इसको महत्त्व मिलेगा? दादरी की घटना के बाद किसी को कुछ साजिश करने की जरूरत ही नहीं, सिर्फ इस समाचार से लोग क्या मत बनायेंगे आप समझिये|

दादरी जैसी घटनाओं में आप मीडिया को दोषी नहीं ठहरा सकते| भारत में जिसे धर्मनिरपेक्षता कहते हैं उस नजरिये से मैं ये बात नहीं कहती हूँ, लेकिन ये एक सार्वजनीन वैश्विक नियम है कि अल्पसंख्यों की समस्याओं को बहुसंख्यों की समस्याओं की तुलना में अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए| जहाँ हिन्दू अल्पसंख्य हैं वहां उन्हें कोई खतरा हो तो हम उस शासन को किस तरह से देखेंगे?

जब कांग्रेस का शासन था तब ये तो सेक्युलर हैं और इनके शासनकाल में हिन्दुओं पर अन्याय होता है ऐसा प्रचार सुनने में आता था| भाजप हिन्दुओं के लिए पार्टी होने की प्रतिमा दिखाने की कोशिश करती रहती है, तो अब तो उन्हींका शासन है| अब हिन्दुओं पर अन्याय होने की बात करने का अर्थ भाजप का शासन हिन्दुओं के लिए भी असफल है ऐसा सन्देश खुद भाजप समर्थक ही देते हैं, या फिर ये प्रचार ही झूठा है ऐसा प्रश्न मनमें आता है| अगर हिन्दुओं पर अन्याय हो रहा है ये बात सच है तो उन घटनाओंमें दोषियों को सजा देने की उम्मीद तो हम कर सकते हैं, उन्माद का तो कोई कारण नहीं| लेखक या मीडिया तो सरकार नहीं चलाते| अगर हिन्दुओं पर ही अन्याय हो रहा है तो उसे सरकार रोकेगी या कोई और? 

भाजप और संघ के विरोध में कोई आरोप लगे तो भाजप और संघ तुरंत उसे राष्ट्रभक्ति या हिंदुत्व से – सारे हिन्दुओं से – जोड़कर उसे व्यापक बना देते हैं| ऐसे प्रयासों का परिणाम भारत की छवि या हिन्दुओं की उदार और सहिष्णु जीवनशैली बदनाम होने में होता है| क्योंकी फिर लोग सामान्य धार्मिक हिन्दुओं को या राष्ट्रवादी व्यक्ति को भी शक की नजर से देखने लगते हैं, उन्मादी समझने लगते हैं| पूर्वाग्रह से देखना अनुचित है ही, लेकिन एक राजनैतिक पक्ष के लिए पूरी हिन्दू संस्कृति बदनाम हो यह भी तो उचित नहीं|

गोमांस का मुद्दा: 

दादरी की घटना को किसी भी दृष्टि से सही ठहराना बहुत आक्रामक इरादों को दर्शाता है| उसको बार बार justify करना या आक्रामक तरीके से छोटी से घटना बताना, अत्यंत अनुचित है| मुझे लगता है कि हिंदुत्व के पीछे संघ की भूमिका क्या है यह समझना ही बहुत मुश्किल है| जो सफल हो सकता है वो रूप लेना ऐसा कुछ वे अपने वक्तव्यों और नीतियों से सन्देश ये नेतालोग देते दिखते हैं| अपने ही वक्तव्य के कारण कोई आरोप करें, तो आरोप करनेवाले पर ही दोष मढ़कर सुरक्षित रहना संभव नहीं|

बांग्लादेश में ब्लॉगरों की हत्याएं होती हैं, तो हमारे मन में क्या विचार आता है? क्या हम उसे उचित मान सकते हैं? क्या हम उसे छोटी घटना मान सकते हैं?

मुझे गोमांस का मुद्दा गैरक़ानूनी बूचडखाने बंद करना, गोमांस का निर्यात बंद करना इस तरह से समझ में आता था| अब जो घटनाएँ देखने को मिल रही है, वे तो कल्पना से भी परे हैं| केंद्र सरकार के ही एक मंत्री कहते हैं कि वो तो गोमांस खाते हैं, इसपर भी यह मुद्दा भड़काया गया तो क्या अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग नियम हैं? फिर किसी और के गोमांस खाने पर हंगामा क्यों? 

हिन्दू संस्कृति के स्वातंत्र्य पर नियंत्रण क्यों?

कोई अगर किसी बात को इसलिए जस्टिफाई करे कि ये वेदों में लिखा है, इसलिए किया तो फिर तो हर कोई अपनी समझ के अनुसार वेदों का अर्थ बताकर कुछ भी करने लगेगा| ये तरीका केवल गोमांस तक ही नहीं रहेगा, क्योंकी बहुत सारे लोग अपने अपने तरीके से वेदों के नियम बताते हैं| हिन्दुओं में तो नास्तिक होना, मूर्तिपूजा को नकारना या वेदों को भी मानने से इंकार करने का स्वातंत्र्य है| हिन्दुओं में तो एक परिवार के सदस्यों पर एक जैसी पूजा – श्रद्धा होने का बंधन नहीं होता| यही स्वातंत्र्य हिंदुत्व – हिन्दू होना है-ऐसा मुझे लगता है|

नेतृत्व की कमियां:

अगर धर्म के ही बात करे तो, राम या कृष्ण लोगों के नेता थे| जनता से ऊपर भगवान बनकर नहीं बैठे थे| नेता सबमें शामिल होता है, सबका एक हिस्सा होता है| सच्चे नेता को अपने काबिलियित पर विश्वास होना चाहिए, न कि विरोधकों की हरकतों के बारे में असुरक्षितता| 

अगर बार बार आक्रामक तरीके से जो भी विरोध करे उसे पाकिस्तान जाने के लिए कहे या अपमानित करे, टार्गेट करे, तो उन ट्रोलों को या छोटे नेताओं पर दोष नहीं आता, जिम्मेदारी तो मुख्य नेता पर ही आयेगी| अपनी तारीफ करनेवाले ही आसपास हो सकते हैं, ऐसा कोई नेता माने तो ये उनके लिए बहुत घातक साबित हो सकता है, जैसा की अब बिहार चुनाव में हुआ|

अपने से छोटे नेता को महत्त्व न देना, किसी भी नेता के मन की एक असुरक्षितता की भावना को दर्शाता है| स्थानीय नेता के नाम से विजय मिला तो क्या केन्द्रीय नेतृत्व का महत्त्व कम हो जाएगा? कहीं पार्टी  में किसी और का महत्त्व बढ़ गया तो क्या होगा? ये अपने नेतृत्व पर अविश्वास दर्शाता है|  

धार्मिक हिन्दुओं ने, उनकी आस्थाओं ने किसी का क्या बिगाड़ा है? किसी को शाकाहारी जीना हो तो उससे किसी और का क्या नुकसान है? किसी के रामभक्त होने से किसी और का क्या नुकसान है? किसी ने गाय को माता मान लिया तो भी उससे किसी और का क्या नुकसान है? पर जहाँ जिस आस्था की लोकप्रियता है उसके साथ किसी तरह से अपने आपको दिखाकर राजनैतिक फायदे के लिए उसे प्रयोग में लाना ये आजकी हिंदुत्व की राजनीती दिखती है|

इससे हिन्दुओं की भावनाओं पर चोट पहुँचती है| राजनीती के लिए रामभक्ति या गोभक्ति का इस्तेमाल करने से, राम के बारे में नफरत फैले, गाय के प्रति श्रद्धा का अपमान हो, हिन्दुओं की आस्थाओं का अपमान हो तो उस स्थिती से ये संघ/भाजप के राजनैतिक लोग जिम्मेदारी से दूर जाते हैं| अपने निर्णयों से होनेवाले परिणामों का उत्तरदायित्व लेने की क्षमता हो अगर स्थिती बिगड़े तो उसे ठीक करने की क्षमता हो तो ही किसी विषय को हाथ में लेना ठीक होगा|

अपनी राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाओं के लिए हिन्दुओं की श्रद्धाओं का दुरुपयोग करना अब बंद हो ऐसी बिहार चुनाव के परिणामों के बाद उम्मीद की जा सकती है|

जिन मुद्दों के लिए तर्क/चर्चा/खंडन जैसे सभ्य मार्ग ही उचित हैं उनके लिए आक्रामक होनेवाले नेता लोग बुद्धिहीनता का परिचय दे रहे हैं|