दलित अत्याचारों पर 'चुप्पी' क्यों?

इस दिवाली में जब हम अपने मित्रों और परिवार के साथ खुशियाँ मना रहें थे, महाराष्ट्र में एक दलित परिवार में तीन लोगों के हत्याकांड का समाचार आया| हत्याकाण्ड भीषण था, एक ही परिवार के तीन लोगों को मारकर उनके टुकड़े टुकड़े कर दिए गए थे|

इस तरह की दिल दहला देने वाली घटनाओं के समाचार हम सुनतें हैं!

जात पंचायत के क्रूर आदेशों की घटनाएँ भी सुनने में मिलती है!
इसके अलावा ऐसी घटनाओं के बाद पुलिस ने आरोपियों को पकड़ने के भी समाचार मिलतें हैं |
......

लेकिन, आगे क्या होता है?


आगे क्या इन केसेस के बारे में कुछ पता चलता है?
कितने कोर्ट केस चर्चा में आएं?

कौन दोषी साबित होते हैं? 
क्या उन्हें कोई सजा मिलती भी है?

पंचायत के विवादस्पद फैसलों के बारे में पता चलने के बाद क्या कम से कम उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता है?

क्या पंचायत को किसी के जीवन के फैसले करने का अधिकार है? अगर है तो कानून व्यवस्था का क्या?

ऐसे अनंत प्रश्न मन को उद्वेलित करतें हैं| महाराष्ट्र में घटी दलितो पर अत्याचार और पंचायत के क्रूरतापूर्ण निर्णयों की घटनाओं के कुछ विश्लेषण मैंने मराठी समाचारपत्रों में पढ़े| यह विषय ऐसे होतें हैं जिनके बारे में हम बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों को कभी जानने की आवश्यकता नहीं होती | इसलिए हममें से कितने ही लोग हमारे ही आसपास घटनेवाली समाज की उन समस्याओं से अनभिज्ञ होतें है | विश्लेषक मानतें हैं की इसके पीछे राजनैतिक शक्तियों का संरक्षण होता है| जात पंचायत, खप पंचायत इतने विवादों के बाद भी सुरक्षित है| आजकल तो उनकी ताकद बढ़ती दिख रही है| महाराष्ट्र में भी इनके अस्तित्व और अत्याचारों के बारे में पढ़ा तो विश्वास नहीं हुआ| यह एक ऐसी दुनिया है जो हमारे बीच में ही है लेकिन हमसे अलग!
हम किस विकास की बात करते हैं?

अगर राजनैतिक शक्तियों का संरक्षण वास्तव में इन अत्याचारों को हो तो हम किस विकास की बात करतें हैं?

‘मानवता शब्द’ वास्तव में केवल एक कल्पना तो नहीं बन के रह गया है?

जातिव्यवस्था के बारे में बढ़ चढ़ कर बोलने वाले लोग हैं, लेकिन इन अत्याचारों की घटनाओं के बाद उनका विद्रोह, किसी का आन्दोलन, किसी का उपोषण कुछ क्यों नहीं सुनायी देता?
दलित राजनीती करनेवाले, दलितों को न्याय देने की बात करनेवाले नेता बार बार होने वाली ऐसी घटनाओं पर क्यों चुप रहतें हैं?

क्या कौनसा मुद्दा ‘भुनाने’ में काम आ सकता है, इस पर उसकी चर्चा निर्भर है?

क्या मुद्दे भुनाने का सही समय चुनावों पर निर्भर रहता है?
हमारे लिए उसी विषय का महत्त्व बढ़ जाता है जिसे मीडिया में बार बार दिखाया जाता है! अगर किसी गंभीर हत्याकाण्ड की चर्चा मीडिया में नहीं हुई तो क्या उसका कोई महत्त्व नहीं है?
मानव जीवन का महत्त्व इतना कम हो गया है?
छोटी छोटी व्यर्थ की वार्ताओं को, फ़िल्मी मसाले को, फिल्म प्रमोशन को, राजनेताओं के प्रमोशन को और कुछ नहीं तो कोई एक ही दृश्य बार बार अजीबो गरीब संगीत के साथ दिखाया जाता है...

उस सबको हम हमारी जिन्दगी के लिए क्यों इतना महत्वपूर्ण मानतें हैं?

प्यार का विरोध अत्याचारों की घटनाओं के पीछे कारण बताया जाता है|

इतनी निर्भयतासे हत्या करनेका साहस अपराधियों में क्यों आता है?

किसी गहन विश्लेषण में जाने के बजाय मुझे सता रहे प्रश्न आपके सामने रखें हैं...

एक अंतिम प्रश्न....

दलित अत्याचारों पर हम सबकी चुप्पी क्यों? 

उत्तर हमारे पास है...

हम सबके पास!


टिप्पणियाँ

  1. मेरा मानना हैं कि अत्याचार के विरुद्ध यदि सम्बंधित समाज एकजुट हों तो ऐसी घटनाओं पर काफी हद तक अंकुश लगेगा ..क़ानून पंचायत बाद में पहले सबंधित समाज एकजुट होकर सामना करेंगे तो परिणाम अनुकूल होगें ....वे बिखरे होते हैं इसलिए ज्यादा अत्याचार के शिकार होते हैं ....
    ..गंभीर विचारणीय प्रस्तुति

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    1. टिप्पणी के लिए धन्यवाद कविताजी! मैं आपसे सहमत हूँ | अस्मिता की लड़ाई अपने अधिकारों की अपेक्षा राजनीती के लिए लड़ी जा रही है और इसमें अन्याय और अत्याचार का मुद्दा दब गया है | इसलिए एकजुटता अन्याय के विरुद्ध वैसी नहीं दिखती जैसी होनी चाहिए |

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चैतन्यपूजा मे आपके सुंदर और पवित्र शब्दपुष्प.